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आगमों में चर्चित विषयों का क्रमिक विकास
१३ यहाँ तो मैंने स्थूलरूप से क्रमिक विकासका निर्देश किया है। इसका व्यवस्थित निरूपण तो पुस्तक का विषय हो सकता है-व्याख्यान का नहीं । जैनदर्शन के विकास की रूपरेखा में इसकी चर्चा संक्षेप में करूंगा।
भ. महावीर के मौलिक उपदेश का जो मैंने निर्देश किया और उसी का विकास जो आचार्यों ने किया उसका जो संक्षिम विवरण मैंने दिया है उसके आधार की चर्चा भी कर लेना उपयुक्त होगा।
मैंने इतः पूर्व वाचनाओं का निर्देश किया है। माथुरीवाचनांतर्गत अंग ग्रन्थ जो हमें उपलब्ध हैं उसी के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ। जितने भी अंगबाह्य ग्रन्थ हैं, खास कर उपांग, उन्हें यदि देखा जाय तो उनमें 'अंग आगम से हमने यह बात कही है
और उसके लिए अमुक अंग आगम देखे'ऐसा निर्देश नहीं आता'। पन्नवणा के प्रारम्भ में उसे दृष्टिवाद का निस्यंद कहा है किन्तु तदतिरिक्त जो अंग आगम आचार आदि हैं उनका साक्षी के रूप में निर्देश नहीं आता । दृष्टिवाद से उद्धरण की बात की चर्चा एक अलग व्याख्यान का विषय हो सकता है-सामान्य रूप से मैं यहाँ इतना कह देना चाहता हूँ कि क्योंकि दृष्टिवाद का विच्छेद माना गया था किसी भी नयी बात को आचार्य को कहना हो तो दृष्टिवाद से मैंने यह बात कही है-यह कह देना आसान था । जैसे वैदिकों ने लुप्त श्रुति का आश्रय लेकर कई नई परम्परा को चलाया है-यही प्रक्रिया जैनों में भी देखी जाती है ।
किन्तु माथुरीवाचनान्तर्गत अंग आगमों में जैसे कि भगवती-व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे बहुमान्य आगम में भी जहाँ भी विवरण की बात है-वहाँ अंगबाह्य उपांगों का-औपपातिक, पन्नवणा, जीवाजीवाभिगम आदि का आश्रय लिया गया है । यदि ये विषय मौलिक रूप से अंग के होते तो उन अंगबाह्यों में ही अंगनिदेश आवश्यक था। ऐसा न करके अंग में उपांग का निर्देश वह सू चेत करता है कि तद्विषयकी मौलिक विचारणा आंगों में हुई है। और उपांगों से ही अंग में जोड़ी गई है ।
यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों किया गया । जैन परंपरा में यह एक धारणा पक्की हो गई है कि भगवान महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में ग्रथित किया । अर्थात् अंगग्रन्थ गणधरकृत हैं, और तदितर स्थविरकृत हैं। अतएव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को ही मिला है। अतएव नयी बात को भी यदि प्रामाण्य अर्पित करना हो तो उसे भी गणधरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अंगांतर्गत कर लिया गया। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई । किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंगबाह्य भी गणधरकृत है और उसे पुराण तक बढ़ाया गया । अर्थात् जो कुछ जैन नामसे चर्चा हो उस सबको भ. महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका सम्बन्ध भगवान और उनके गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को संदेह करने का अवकाश मिलता नहीं है । इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भ. महावीर के उपदेश में ही है यह एक मान्यता दृढ़ हुई । इसके कारण बीसवी सदी
१ अपवाद है जहाँ भगवती के पंचम शतक के दशवे उद्देश का उल्लेख है-जबुद्दीव पण्णत्ति सु० १५० ।
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