Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 24
________________ जैन दर्शनका उद्भव और विकास आगम और तक प्रथम व्याख्यान में मैंने विशेषत : जैनागम की चर्चा की है, और व्याख्यान के अन्त में मौलिक उपदेश जो भ. महावीर का था उसमें क्रमशः किस प्रकार का आगमों में विकास हुआ इसकी अति संक्षिप्त रूपरेखा मैंने दी है। प्रस्तुत द्वितीय व्याख्यान में विशेष रूपसे अति प्राचीन माने जाने वाले आचारांग और सूत्रकृतांग को आधार बना कर जैनदर्शन की प्राचीनतम भूमिका क्या थी इसे थोड़ा विस्तार से दिखाने का प्रयत्न है और अन्त में उस मूल भमिका को आधार बनाकर किस प्रकार समग्र जैन दर्शन उतरोत्तर विकसित हुभा इसकी संक्षिप्त रूपरेखा दी है। ___ 'आगम युगका जैनदर्शन' जो पृथक् पुस्तक रूप में मुद्रित है, मैंने न्यायावतारवृति की प्रस्तावना में लिखा था किन्तु वहाँ जो कुछ लिखा गया था वह जैनागमगत जैनदर्शन के विकसित रूपको लेकर था अर्थात् आगमकालीन जैनदर्शन के द्वितीय स्तर की चर्चा थी। किन्तु प्रथम स्तर कैसा था इसका विवेचन उसमें नहीं था । अतएव यहाँ उसकी पूर्वभूमिका देने का अवसर मैंने प्रस्तुत व्याख्यान में लिया है । अतएव उसमें जैनदर्शन की जो भूमिका दी गई है उसे ध्यान में लेकर 'आगमयुग का जैनदर्शन' का अध्ययन करना चाहिए। ऐसा होने पर ही जैनके आगमिक क्रमिक विकास की रूपरेखा अवगत हो सकेगी। ध्यान में रहे कि यह भी रूपरेखा ही है। इसमें विवरण का अवकाश है, किन्तु व्याख्यान में तो रूपरेखा ही हो सकती है । विवरण तो पुस्तक का विषय होगा। आगमकालीन जैनदर्शन की एक विशेषता स्पष्ट है कि उसमें मन्तव्य के लिए तर्क का आश्रय कम लिया गया है । अधिकांश में आप्तवचन ही प्रमाण मानकर तत्त्वों का और उसके स्वरूप का निर्देश किया गया है । उनको तर्क से सिद्धि अन्यदर्शनों के संदर्भ में करने का काम आगमकाल में नहीं हुआ। वह तो दार्शनिक काल में हुआ । जैनशास्त्रों में यह काल कब से शुरू हुआ इसकी खोज की जाय तो आगमों की टीकाओं में नियुक्ति-चर्णि-भाष्यों में तार्किक चर्चा का प्रारम्भ हो गया है। किन्तु अभी तक उनका स्वतंत्र अध्ययन करना बाकी ही है। सामान्य तौर पर जैनदर्शन के इतिहास की बात आती है वहाँ सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि से तार्किक जैनदर्शन के प्रारम्भ की चर्चा की जाती है। किन्तु यह वास्तविक नहीं है। सिद्धसेन आदि से भी पूर्व और आगम के बाद जैनदर्शन की क्या स्थिति थी इसके जानने का साधन आगमों की नियुक्ति आदि प्राचीन टोकाएँ हैं और उनका अभी तक बाकी है । इसके होने पर ही जनदर्शन के विकास को पूरा इतिहास हमारे समक्ष आ सकता है। अन्य दर्शनों के संदर्भ में आगम में अपने तत्त्वों की चर्चा तो है किन्तु वहां इतना ही कहा गया है कि उनकी मान्यताएँ ठीक नहीं। किन्तु क्यों ठीक नही, उसके पाछे क्या तर्क हैइसका निर्देश नहीं । अतएव तर्कपुरःसर दार्शनिक चर्चा आगम में नहीं है और आगमके टीकाकारों और सिद्वसे। आदि ने यह स्पष्टरूप से की है। अतएव आगम और तार्किकों के जैनदर्शन के विवरण की भेदरेखो यही है कि एक आप्तवाक्य को प्राधान्य देता है जब कि दूसरे आप्तवचनों को यथार्थता की सिद्धि तर्क से करते है। इस भेदरेखाके अपवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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