Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 14
________________ पाटलिपुत्र को वाचना करके स्थूलभद्र के साथ विहार कर के पाटलिपुत्र आये (पृ. १८८) और वहीं स्थूलभद्र के द्वारा ऋद्धिप्रदर्शन होने के कारण उन्होंने दशपूर्वके आगे वाचना देनेका निषेध किया । अत एव चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु अकालके कारण उज्जैनी गये और अकाल के ही कारण शिथिलाचार बढ कर संधभेद हुआ यह जो दिगम्बर परंपरा को मान्यता है'-वह विचारणीय हो जाती है । तित्योगालीमें तो स्पष्ट लिखा है कि कुछ मुनि अकाल के कारण मगध से बाहर गये और कुछने अनशन कर लिया और जो बाहर गये वे भी यतनासे जीवनयापन करते रहे । सुकाल होने पर मगधमें जो वापस आये उनमें कोई मतभेद हुआ ऐसा कोई उल्लेख भी तित्थोगालीमें है नहीं । और दिगंबर परंपरा के लेखकों ने, जो निश्चित रूप से तित्थोगाली के बाद के हैं, अकाल के कारण ही वस्त्रग्रहण होने लगा या उस अकालमें वस्त्रग्रहण की प्रथा चल पड़ी-यह जो लिखा है वह तो निराधार ही प्रतीत होता है क्यों कि जहाँ खाना मिलना ही दकर हो वहाँ वस्त्र सलभ कैसे होगा? वस्त्र की प्रथा चाल हुई इसका कारण अकाल तो नहीं हो सकता। यह बात दिगंबर लेखकों के भी ध्यानमें आई है अतएव अपनी परंपरा को सिद्ध करने के लिए कथा भी गढ़ ली कि नग्नको देखकर श्रविका का गर्भपात हुआ और उसके कारण आगे चलकर अधेफालक संप्रदाय चला'-ऐसी कथाओं में सांप्रदायिक तथ्य हा सकता है, इतिहास का तथ्य नहीं । और इसी प्रसंगमें दिगंबर लेखकों द्वारा यह जो कहा जाता है कि अपने शिथिलाचारके अनुसार शास्त्र की रचना की यह भी निराधार है। विद्यमान शास्त्र को देखकर यदि यह आक्षेप किया जाय तो कुछ अंशमें औचित्य होगा । किन्तु उसे भद्रबाहु के कालके साथ जोडना तो असंगत ही है । क्यों कि विद्यम न श्वेताम्बर आगम पाटलिपुत्र की वाचना के अनुसार हैं यह तो श्वेताम्बर भी नहीं मानते । दसरी बात यह भी है कि उज्जैन वाले भद्रबाहु और मगधके भद्रबाहु चतुर्दशपूर्वी का ऐक्य भी संदिग्ध है। दो भद्रबाहु हुए ऐसा दोनों परंपरा मानती है और कथाकारोंने दोनो को कथाओं का मिश्रण कर दिया है यह प्रतीत होता है। पाटलिपुत्रकी वाचना में एकादश अंग स्थिर हुर ओर स्थूलभद्रने दशपूर्व की वाचना आगे बढाई -इतना स्पष्ट है, किन्तु श्वेताम्बरों के अनुसार जो दूसरी वाचना मथुरामें करनी पडी-यही सिद्ध करता है कि पुनः नवनिर्माणको आवश्यकता आ पड़ी थी। अत एव विद्यमान श्वेताम्बर आगमों को पाटलिपुत्रकी वावना से भिन्न ही मानना चाहिए । अर्थात् ही पाटलि. पुत्रकी वाचना से बचे हुए आगमों में ही परिवर्तन -परिवर्धन-संशोधन कर म थुरी वाचना तित्थोगाली केवल अंगकी वाचना का ही निर्देश करता है। वह अंगबाह्यकी वाचना के विषयमें मौन है । स्पष्ट है कि उस काल तक भगवान के उपदेश का संकलन श्रुतरूपसे अंगमें ही माना गया था । इसका यह अर्थ तो नहीं कि उस काल तक अन्य ग्रन्थ नहीं बने थे । दशवैकालिक शय्यंभव' की रचना है । वह भद्रबाहु के पूर्वकी है और स्वयं भद्र १ देखे जै.सा. इ. पूर्वपीटिका, संघभेद प्रकरण, पृ. ३७५ से । २ यहाँ गह भी ध्यान देने की बात है कि 'दुभिक्खभत्त' का उपयोग जैन मुनि नहीं कर सकते-जाताधर्मकथागत मेघकथा सू० ३१, सुत्तागमे पृ. ९६२ । ३ जै.सा. इ पूर्वपीठिका पृ. ३७७ । ४ देखें, समवाय १, २११-२२७ । भगवती २५.३ ११५-११६ । ५ तित्थोगाली गा०७१२-७१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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