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जैन आगम
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और
हुड मिलने के बाद इस प्रक्रिया में परिवर्तन देखा जाता हैं और सिद्धान्त ग्रन्थों के रूप में इन्हीं दोको और उनकी टीकाओंको ही महत्त्व मिलने लगा है जो उचित ही है । श्रुतावतार
श्वेताम्बरोंमें आगमों, खासकर अंग आगमोंकी वाचना का जिक्र है जैसा कि हम ने इसके पूर्व कहा है । तो दिगंबरों में वाचनाका प्रश्न ही नहीं है क्योंकि उनके मतमें आगमस्थानीय खंडागम' है और वह भूतबलि - पुष्पद ंतकी रचना मानी जाती है। फिर भी किस प्रकार उत्तरोत्तर अंग आगमों का विच्छेद होता गया और अंतमें किस प्रकार उक्त दो आचार्योंने
डागम की रचना आ०धरसेन से उपदेश प्राप्तकर की उस विवरणको श्रुतावतार के रूपमें दिया जाता है । नंदी आम्नाय पट्टावली में इन दो आचार्योंको एक अंग ( आचारांग )धर कहा है (धवला भाग २, प्रस्तावन: पृ० २६) और उनका समय वीरनि० ६८३ के बाद कभी है ।
धवला टीकामें तो यह स्पष्ट किया है कि लोहार्य के बाद - "ततो सव्वेमिंग पुव्वाण मेग देसो आइरियरंपराएं आगच्छमाणो घरसेणाइरियं संपत्ती " - स्पष्ट है कि घरसेन आचार्य तक संपूर्ण अंग और पूर्वका विच्छेद नहीं था, उनका एकदेश धरसेन तक तो सुरक्षित था । उसी शेष अंश के आधार पर वीरनि. ६८३के आसपास खंडागम की रचना मानी जाती है । दोनों की तुलना
२
खास ध्यान देने की बात तो यहाँ यह है कि आचार्य धरसेन भी सौराष्ट्र में ही गिरनार की गुफा में थे और सौराष्ट्र के ही वलभी नगरमें श्वेताम्बरों के मत से आगमों का पुस्तक लेखन हुआ । दिगंबरों ने वीरनि. ६८३ के बाद यह किया तो श्वेताम्बरों ने माथुरीवाचना जो वीरनि. ८२७ - ४० के बीच हुई उसका लेखा वीरनि. ९८० या ९९३ में पूर्ण किया । स्पष्ट है कि दोनोंमें जो करीब ३०० वर्ष का अन्तर है उसीके कारण श्वेताम्बरोंमें आगमों की संख्या बढ़ गई इतना ही नहीं किन्तु उस संप्रदायकी मान्यताओं की पुष्टि का भी उन्हें अवसर मिला । इन्ही ३०० वर्षों में जो अन्य दिगम्बर ग्रन्थ बने उनमें भी यही प्रक्रिया अपनाई गई और दिगम्बर मान्यताओं को पुष्ट किया गया ।
वीरनि० ६८३ के बाद रचे गये षट्खंडागममें पतिपाद्य जो विषय है उसमें श्वेताम्बरों का कोई मतभेद नहीं है । यही सिद्ध करता है कि उस समय तक जो श्रुत सिद्धान्त था उसमें श्वेताम्बर दिगम्बरमें कोई भेद नहीं था । स्त्री-मुक्ति जैसे विषयमें जो श्वेताम्बर - दिगम्बर में आज सैद्धान्तिक मतभेद हमारे समक्ष है - वह भी नहीं था । अर्थात् दोनों उस काल तक स्त्री-मुक्ति मानते थे । यह सिद्ध करता है कि पारंपरिक सिद्धान्त दोनोंमें सुरक्षित थे । उसके बाद ही वस्त्र आचारको लेकर जो मतभेद दृढ़ होता गया उसी के फलस्वरूप स्त्री-मुक्ति का निषेध भी १ वस्तुतः षट्खंडागम जैसा उपलब्ध है वह न तो एक काल की रचना है और न एक आचार्य की रचना है। कई प्रकरणों का उसमें समावेश है जो निश्चित रूपसे एक काल की रचना नहीं । विशेषतः पुस्तक १३ गत सूत्रों से सूचित होता है कि यह अनुयोग प्रकिश इतः पूर्व षट्खण्डागम में नहीं देखी जाती ।
२ यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि धरसेन को आचार्य परंपरा से प्राप्त था तो ६८३ के बाद कितने आचार्य समझे जाय ?
३ लेखनका यह काल कल सूत्रात उल्लेख के आधार पर ही माना जाता है किन्तु यह भी विचारणीय है कि यह आगमलेखनकाल है या नहीं ।
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