Book Title: Jain Darshan ka Adikal Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: L D Indology AhmedabadPage 12
________________ वर्तमान में जैन आगम और तद्विषयक मतभेद खोज की तत्परता दिखाई देतो है । इसी आत्मखोज की परंपरा को कुछ श्रमणों ने अपनाया है और बाह्यसे अंतर्मुख होने का आह्वान विशेष रूपसे किया । सब श्रमणों ने ऐसा नहीं किया यह तो अक्रियावादी आदि की मान्यताओं को ध्यानमें लें तो मानना ही पड़ेगा। भगवान महावीर और बुद्धने इस अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को प्रधान रूपसे अपनाया और इसी का प्रतिघोष हम उनके बादके वैदिक वाङ्मयमें भी देखते हैं । क्रमशः हिंसक यज्ञों की जो भौतिक संपत्ति के लिए कर्मकांडकी प्रवृत्ति चल रही थी उसका निराकरण हो कर आध्यात्मिक यज्ञों के अनु. ष्ठान की बात चल पड़ी थी-यह स्पष्ट होता है । और मानव मात्र का धार्मिक अधिकार समान है-यह भावना भी बढ रही थी। __इसी मानवमात्रकी एकता की भावना को भगवान महावीर ने और भी नया रूप दिया और कहा कि जीने का अधिकार केवल मानव को ही नहीं किन्तु जगत के सूक्ष्म-स्थूल सभी जीवों को है'। अतएव सामायिक व्रत की व्याप्ति केवल मानव तक नहीं किन्तु संसार के सभी जीवों तक है । अतएव किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए । उपनिषदों में ब्रह्म की कल्पना है, आत्माद्वैत की कल्पना है-किन्तु अहिंसा और अपरिग्रह आदि को उतना महत्त्व नहीं जितना कि भगवान महावीर ने अपने उपदेश में दिया । उनके मत में ब्रह्म का नहीं किन्तु समका महत्त्व है। उनका तो कहना था कि परिग्रह ही हमारे लिए बन्धन है और परिग्रह के लिए ही जीव सब प्रकार के पापाचार-हिंसा, चोरी, झूठ आदि का आश्रय लेता है । अतएव समका प्रचार करके परिग्रह के पाप से मुक्ति दिलाना ही जैनागमका ध्येय हो गया । भगवान् महावीर का यह सम या सामायिक का उपदेश जानने का हमारे पास एक ही साधन है और वह है जैनागम । किन्तु जैनागम क्या है, और कितने हैं और किसने कब लिखे या ग्रथित किये-इस विषय में जैनों में ही काफी मतभेद है। अतएव उस आगम के विषय में इस व्याख्यान में कुछ चर्वा करना मैने उचित माना है। इतःपूर्व आगमों के विषयों में मैंने काफी लिखा है किन्तु यहाँ जो विचार मैं रख रहा हूँ यह भिन्न दृष्टि से है । अतएव पुराने विचारों का पुनरावर्तन मात्र नहीं है यह मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। इतना ही नहीं किन्तु मेरे इत:पूर्व के विचारों में यहाँ संशोधन भी दिखाई देगा। वर्तमान में जैनागम और तद्विषयक मतभेद जैनागमके विषय में प्रथम यह जानना जरूरी है कि वर्तमानमें जैनागमान्तर्गत क्या समझा जाता है । जनों के अनेक संप्रदाय हैं और इस विषयमें ऐक्य नहीं । दिगम्बरोंके मतसे तो मूल जिनागम आचारांग आदि द्वादशांग विच्छिन्न हो गये हैं और केवल दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगके अंश पूर्व के आधार से रचे गये कमायपाहुड और षट्खडागम आगमस्थानीय हैं । श्वेताम्बरों के मासे ४५ ग्रन्थ जिनागममें शामिल है । उनके मतसे आचारांग आदि ११ अंग ग्रन्य जिस रूपमें भी खडित रूप में संभव था सुरक्षित कर लिया गया है और अन्य ग्रन्थ जो स्थविरोंने भगवान् महावीर के उपदेशका अनुकरण करके रचे थे वे भी आगमान्तर्गत कालक्रम से हो गये हैं । इतना ही नहीं, इन ग्रन्थों की टीकाएँ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका मिलकर पंचांगी जैनागमरूप से प्रमाणभूत है । स्थानकवासी और १ आचा. १३८; सूत्रकृ. ५०३-५०८ । २. सूत्रकृ. १-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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