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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
नहीं। धर्मी के रहते हुए ही उसके धर्म का विचार किया जाता है अगर आत्मा नामक धर्मी का अस्तित्व सिद्ध नहीं तो धर्म का फल कैसे प्राप्त हो सकता है?68 जिस प्रकार महुआ, जल, गुड़ आदि पदार्थों के मिला देने से उसमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से उसमें चेतना उत्पन्न हो जाती है।69 पृथ्वी आदि तत्त्वों से बने शरीर से अलग चेतना नामक कोई पदार्थ नहीं। न ही शरीर से पृथक् उसकी उपलब्धि देखी जाती है। जो पदार्थ प्रत्यक्ष है, उनका अस्तित्व है जो प्रत्यक्ष नहीं उसका अस्तित्व भी नहीं होता। जैसे आकाश के फूल।70 जीव भी ऐसा ही है। जब चेतना नामक पदार्थ नहीं तो पुण्य-पाप, परलोक आदि भी नहीं हो सकते। जीव भी पानी के बुलबुले के समान क्षण में विलीन हो जाता है। जो व्यक्ति प्रत्यक्ष के सुख-आराम को छोड़कर परलोक सम्बन्धी सुख चाहते हैं। वे लोक और परलोक दोनों में दु:ख भोगते हैं। परलोक के सुखों के लोभ में मूर्ख लोग इस लोक में सुखों को भी छोड़ देते हैं। परलोक की आकांक्षा करने वाले सामने आये स्वादिष्ट भोजन को छोड़कर पीछे पछताते हैं। परलोक की इच्छा करना मूर्खता है जो कुछ भी है इसी लोक अर्थात् प्रत्यक्ष संसार में देखे जाने वाले सुख से अधिक कुछ भी नहीं है।72
यह कहना कि आत्मा नहीं है यह बात मिथ्या है क्योंकि पृथ्वी आदि भूतचतुष्ट्य के अतिरिक्त ज्ञान-दर्शनरूप चैतन्य की भी प्रतीति होती है। शरीर
और चैतन्य एक नहीं है क्योंकि चैतन्य चित् स्वरूप है, ज्ञान दर्शन रूप है। शरीर अचित्स्वरूप जड़ है।3 चैतन्य का प्रतिभास तलवार के समान अन्तरंगरूप होता है और शरीर का प्रतिभास म्यान के समान बहिरंग रूप होता है! जिस प्रकार तलवार और म्यान के समान आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न हैं। यथार्थ में कार्यकारण भाव और गुण-गणी भाव सजातीय पदार्थों में होता है विजातीय पदार्थों में नहीं। इसलिए दोनों की जातियाँ पृथक-पृथक हैं - एक चैतन्यरूप है, दूसरा जड़ रूप है।4
चैतन्य शरीर का विकार नहीं हो सकता क्योंकि भस्म आदि जो शरीर के विकार हैं उनमें विसदृश होता है यदि चैतन्य शरीर का विकार होता तो उसके भस्म आदि विकार भी चैतन्य होने चाहिएँ, परन्तु ऐसा होता नहीं। इससे स्पष्ट है चैतन्य शरीर का विकार नहीं।5 शरीर के प्रत्येक अंगोपांग की रचना अलग-अलग भूत चतुष्ट्य से होती है तो शरीर के प्रत्येक अंगोपांग में पृथक् - पृथक् चैतन्य होने चाहिए। चैतन्य भूत चतुष्टय का कार्य है, परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। शरीर के सभी अंगोपांग में एक ही चैतन्य का प्रतिभास होता है।