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आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श
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समीक्षा
कोई भी स्थूल वस्तु जब बिखर जाती है तब उसके अणु अथवा अणुसंघात स्वतन्त्ररूप से अथवा दूसरी वस्तुओं के साथ मिलकर नया परिवर्तन खड़ा करते हैं। संसार के पदार्थ संसार में ही स्थूल अथवा सूक्ष्म रूप से इतस्ततः विचरण करते हैं और उनके नए-नए रूपान्तर होते रहते हैं। दीपक बुझ गया इसका अर्थ यह नहीं समझना कि दीपक का सर्वथा नाश हो गया। दीपक के परमाणु समूह कायम है। जिस परमाणु संघात से दीपक जला था वही परमाणु संघात रूपान्तरित हो जाने से दीपक रूप से नहीं दीखता और इसीलिये अन्धकार का अनुभव होता है। सूर्य की गर्मी से पानी सूख जाता है, इससे पानी का अत्यन्त अभाव नहीं हो जाता। वह पानी रूपान्तर से बराबर कायम ही है। जब एक वस्तु के स्थूल रूप का नाश हो जाता है तब वह वस्तु सूक्ष्म अवस्था में अथवा अन्य रूप में परिणत हो जाती है, जिससे पहले देखे हुए उसके रूप में वह न दीखे यह सम्भव है। कोई मूल वस्तु नई उत्पन्न नहीं होती और किसी मूल वस्तु का सर्वथा नाश भी नहीं होता। यह एक अटल सिद्धान्त है -
नासतो विद्यते भावों ना भावों विद्यते सतः।
उत्पत्ति और नाश पर्यायों का होता है। दूध का बना हुआ दही नया उत्पन्न नहीं हुआ है, दूध का ही परिणाम दही है। यह गोरस दूध रूप से नष्ट होकर दही रूप से उत्पन्न हुआ है, अतः ये दोनों गोरस ही है।
इस प्रकार यह तथ्य भी सर्वत्र समझ लेने का है कि मूल तत्व तो वैसे के वैसे ही रहते हैं और उनमें जो अनेकानेक परिवर्तन-रूपान्तर होते रहते हैं अर्थात् पूर्व परिणाम का नाश और दूसरे परिणाम का प्रादुर्भाव होता रहता है वह विनाश और उत्पाद है। इस से सब पदार्थ उत्पाद, विनाश और स्थिति (ध्रुवत्व) स्वभाव के ठहरते हैं। जिसका उत्पाद और विनाश होता है उसे "पर्याय" कहते हैं और जो मूल वस्तु स्थायी रहती है उसे "द्रव्य" कहते हैं। द्रव्य की अपेक्षा से (मूलवस्तु तत्त्व से) प्रत्येक पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य। इस तरह प्रत्येक वस्तु का एकान्त नित्य नहीं, एकान्त अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य रूप से अवलोकन अथवा निरूपण करना "स्याद्वाद" है।
__ स्याद्वाद के बारे में कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि वह निश्चयवाद नहीं है, किन्तु संशयवाद है; अर्थात् एक ही वस्तु को नित्य भी मानना और अनित्य भी मानना, अथवा एक ही वस्तु को सत् भी मानना और असत् भी