Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan
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आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर. निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप.... 291
तदन्तर्भूत जीवादितत्त्वान् वीक्षणलक्षितम्।। - आ.पु. 21.148; त.सू. 9.37 332. उपशान्तक्षीणकषाययोश्च।
- त.सू. 9.38 333. द्वीपाब्धिवलयानद्रीन् सरितश्च सरांसि च।
विमानभवनव्यन्तरावासनरकक्षिती:।। त्रिजत्सन्निवेशे न सममेतान्यथागमम्। भावान् मुनिरनुध्यायेत् संस्थानविचयोपग:।। जीवभेदांश्च तत्रत्यान् ध्यायेन्मुक्तेतरात्मकान्।
ज्ञत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वद्रष्ट्टत्वादींश्च तद्गुणान्।। --- आ.पु. 21.149--151 334. तदप्रमत्ततालम्बं स्थितिमान्तर्मुहूर्तिकीम्।
दधानमप्रमत्तेषु परां कोटिमधिष्ठितम्।। सदृष्टिषु यथाम्नायं शेषेप्वपि कृतस्थिति।
प्रकृष्टशुद्धिमल्लेश्यात्रयोपोबल वृंहितम्।। - आ.पु. 21.155-156; 157-158 335. प्रसन्नचित्तता धर्मसंवेगः शुभयोगता।
सुश्रुतत्वं समाधानमाज्ञाधिगमजा रुचिः।। भवन्त्येतानि लिङ्गानि धर्मस्यान्तर्गतानि वै। सानुप्रेक्षाश्च पूर्वोक्ता विविधाः शुभभावना:।।
... आ.पु. 21.159-160 336. आ.पु. 5.140-143 337. स्वर्गापवर्गसंप्राप्तिं फलमस्य प्रचक्षते। साक्षात्स्वर्गपरिप्राप्तिः पारम्पर्यात् परंपदम्।।
-- आ.पु. 21.163 338. कषायमल विश्लेषात् शुक्लशब्दाभिधेयताम्। उपेयिवदिदं ध्यानं सान्तर्भेदं निबोध मे।।
- आ.पु. 21.166 339. शुक्लं परमं शुक्लं चेत्याम्नाये तद्विधोदितम्। छद्मस्थस्वामिक पूर्वं परं केवलिनां मतम्।।
-- आ.पु. 21.167 340. द्वेधाद्यं स्यात् पृथक्त्वादि वीचारान्तवितर्कणम्। तथैकत्वाद्यवीचार पदान्तं च वितर्कणम्।।
- आ.पु. 21.168 341. पृथकत्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः। सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वादिपदाह्वयम्।।
- आ.पु. 21.170 342. एकत्वेन वितर्कस्य स्याद् यत्राविचरिष्णुता। सवितर्कमवीचारमेकत्वादि पदाभिधाम।।
- आ.पु. 21.1713; 21.172-173 343. त.सू. (के.मु.) 9.41 (वि.) 344. आ.पु. 21.184-186 345. आ.पु. 5.146--153 346. स्नातक : कर्मवैकल्यात् कैवल्य पदमापिवान्।
स्वामी परमशुक्लस्य द्विधा भेदमुपेयुषः।

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