Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan

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Page 357
________________ 316 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण नष्ट भी हो जाता है किन्तु विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहता है।94 ऋजुमति कदाचित् प्रतिपाति भी हो सकता है, किन्तु विपुलमति को उसी भव में केवलज्ञान हो जाता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञानी सूक्ष्मतर, विशेष, अधिक और स्पष्ट रूप से जानता है। क्षायोपशमजन्य कोई भी ज्ञान जब अपने आप में पूर्ण हो जाता है, तब निश्चय ही उसे उस भव में केवलज्ञान हो जाता है, अपूर्णता में भजना है – हो और न भी हो। 5. केवलज्ञान केवल शब्द का अर्थ एक या सहाय रहित है। ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट होने से ज्ञान के अवान्तर भेद मिट जाते हैं और ज्ञान एक हो जाता है। उसके पश्चात् इन्द्रिय और मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती, वह केवल ज्ञान कहलाता है। समस्त लोकालोक और तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) के सभी पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है, वह केवलज्ञान होता है। सम्यक् ज्ञान की भावनाएँ सम्यक् ज्ञान की पाँच भावनाएँ होती है98 - 1. जैनागमों का स्वयं पढ़ना 2. दूसरों से पूछना 3. पदार्थ के स्वरूप का चिन्तन करना 4. श्लोक या गाथा कण्ठ करना - परिवर्तना - पुनः पुनः पठन-पाठन करना। 5. समीचीन धर्म का उपदेश देना - ये सम्यक् ज्ञान की भावनाएँ कही जाती हैं। सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कहा जाता है जो वस्तु के सत्य स्वरूप का वर्णन कर सकता है वही ज्ञान प्रमाण होता है। मिथ्या ज्ञान प्रमाण नहीं होता। उपर्युक्त पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं।99 प्रमाण दो प्रकार का है -- परोक्ष और प्रत्यक्ष।। 00 आदि के दो ज्ञान (मति और श्रुत) परोक्ष है।10। इसके अतिरिक्त अवधि, मन:पर्यव और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण में आते हैं।102.

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