Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 299
________________ 258 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण पात्र दान की अनुमोदना का फल उत्तम पात्र को दिया हुआ दान और सुपात्र को दिये हुए दान की अनुमोदना करने से जीव भोगभूमि में जन्म लेकर आजीवन निरोग रहकर सुख से जीवन व्यतीत करता है।476 पात्र को दिये हुए दान की अनुमोदना का उत्कृष्ट फल है कि जीव उत्तम भोग-भूमि प्राप्त कर लेता है। इतना महान् फल है दान की अनुमोदना का।477 पात्र दान से प्राप्त हुए पुण्य के कारण जीव उत्तरकुरु भोगभूमि की आयु का बन्ध कर लेता है।478 जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरु पर्वत से उत्तर की ओर उत्तर कुरु नाम की भोगभूमि है जो कि स्वर्ग की शोभा से भी अधिक है। जहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष है जो इन्सान की मनोवांछित इच्छा को पूर्ण करते हैं।479 आहार लेने की विधि-दोष युक्त आहार लेने की निषेध मुनिराज को किस प्रकार का आहार करने योग्य है? मुनि दूसरे द्वारा दिये विशुद्ध आहार को ग्रहण करता है। जिस भोजन में साधक को शंका हो जाये कि भोजन शुद्ध है या अशुद्ध है, ऐसे आहार को मुनि ग्रहण नहीं करता। अभिहत अर्थात् जो किसी दूसरे के घर से आया हो, साधु उसे नहीं करता। उद्दिष्ट अर्थात् जो अपने लिए भोजन तैयार किया गया हो, साधु उसे नहीं लेते। क्रयक्रीत अर्थात् बाजार से खरीदा हुआ आहार मुनिराज नहीं लेते। इन सभी प्रकार के आहार को साधक निषिद्ध आहार मानता है। घरों की पंक्तियों का उल्लंघन करके आहार नहीं लेते।480 साधक जीभा के स्वाद से रहित, निश्चित समय पर शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। वे भोजन को स्वाद (चिकना, ठण्डा, गर्म, रूखा, नमक सहित, नमक रहित) रहित जैसा भी हो, वैसे ही आहार को प्राण धारण के लिए ग्रहण करते हैं और प्राण को भी धर्मसाधना करने के लिए धारण करते हैं। अल्प आहार लेकन मुनिराज शरीर को स्थिर रखते हैं और उससे संयम धारण कर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं।481 मुनिराज आहार मिलने पर प्रसन्न और न मिलने पर दु:खी नहीं होते। भोजन न मिलने पर साधक दुःखी न होकर यह चिन्तन करता है कि मुझे अधिक तप करने का लाभ मिलता है। साधक सदैव समभाव में रहता है। वह अपनी स्तुति, निन्दा, सुख-दुख तथा मान-सम्मान सभी अवस्था में समान रहता है।482 वह स्तुति सुनकर सुखी, निन्दा सुनकर दु:खी नहीं होता। साधक मौन धारण करके ईर्यसिमिति (नीचे भूमि को देखकर चलता हुआ) से गमन करते हुए आहार लेने जाता है। भोजन न मिलने पर वह मौन भंग नहीं करता। अधिक तप करने से जिन तपस्वी

Loading...

Page Navigation
1 ... 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394