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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
(घ) सूक्ष्मसंपराय संयम - यहा सूक्ष्म शब्द से लोभ और संपराय शब्द से कषाय का ग्रहण किया जाता है। जब सूक्ष्म रूप से लोभ का उदय हो और शेष कषायों का उदय न हो, तब उसे सूक्ष्मसंपराय संयम कहते हैं। यह संयम दसवें गुणस्थान में होता है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान के अभिमुख संयमी के परिणाम विशुद्धयमान होते हैं; किन्तु दसवें गुणस्थान से प्रतिपाती होते हुए जब संयमी नौवें गुणस्थान के अभिमुख होता है, तब उसके भाव संक्लिश्यमान होते हैं।213
(ङ) यथाख्यात संयम - इसका शाब्दिक अर्थ है - जिसकी कथनी और करणी संतुलित हो, जैसे कहता है, वैसे ही करता है। इसके अधिकारी पूर्ण सत्यवादी, उत्तम संहनन वाला, छद्मस्थ और केवली दोनों ही होते हैं। इस संयम में कषायों का उदय नहीं होता। 11वें, 12वें, 13वें और 14वें गुणस्थान में ही यथाख्यात-संयम पाया जाता है। निर्वाण-प्राप्ति में सहायक यही मुख्य संयम है। इसकी आराधना से जीव आत्मविकास करते हुए अक्षय मोक्ष पद की प्राप्ति कर सकते हैं।
(च) देशविरति संयम - कर्मबन्धजनक आरम्भ-समारम्भ से किसी अंश में निवृत्ति होना, देशविरति-संयम है। इसके अधिकारी गृहस्थ है।214
(छ) अविरति संयम - किसी भी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना अविरति संयम है। यह पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक पाया जाता है।15
9. दर्शन चार
सामान्य-विशेषात्मक वस्तु-स्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश को जानने-देखने वाले चेतनाशक्ति के उपयोग या व्यापार को दर्शन कहते हैं। पदार्थों के आकार को विशेष रूप से न जानकर सामान्यरूप से जानना दर्शन है।216
दर्शन मार्गणा के चार भेद हैं - (क) चक्षुदर्शन (ख) अचक्षुदर्शन (ग) अवधि दर्शन (घ) केवल दर्शन।
(क) चक्षुदर्शन - जीव को चक्षुरिन्द्रिय द्वारा पदार्थ के सामान्य अंश का बोध हो उसे चक्षुदर्शन कहते हैं।
(ख) अचक्षुदर्शन - अचक्षुदर्शन वह है, जिसमें चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थ के सामान्य अंश का बोध हो।