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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
आत्मा के शुद्ध स्वभाव को मलिन एवं कलुषित करता है, उसे कषाय कहा जाता है। अथवा जीव जिससे हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त हों वह कषाय है। जिससे कर्मों का बन्ध हो, वह कषाय है क्योंकि कष का अर्थ है, भव, कर्म या संसार का जिससे भव बन्धन हो वही कषाय है।189
वीतराग भगवान के अतिरिक्त अन्य सभी जीवों में कषाय होते ही हैं। कषाय की एक प्रकृत्ति तो उदय में रहती है, और शेष तीनों प्रकृतियाँ सत्ता में अर्थात् सुप्तावस्था में रहती है। एक साथ दो, तीन या चार प्रकृतियों का उदय नहीं होता। 90 इन प्रकृतियों के आधार पर कषाय चार प्रकार के हैं
(क) क्रोध (ख) मान (ग) माया (घ) लोभ91
(क) क्रोध - कोप, गुस्सा, रोष ये क्रोध के ही पर्यायवाची शब्द है। क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला कृत्य-अकृत्य के विवेक को हटाने वाला एवं प्रज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं। कोपवश आत्मा किसी की बात को सहन नहीं करता और बिना विचारे अपने तथा पराये अनिष्ट के लिए प्रस्तुत हो जाता है। आत्मा की ऐसी परिणति को क्रोध कहा जाता है।192
(ख) मान - अभिमान, मद, अहंकार ये पर्यायान्तर नाम हैं। जाति-कुल आदि विशिष्ट गुणों के कारण आत्मा में जो अहंभाव जागृत होता है, उसे मान कहते हैं। अपने आपको बड़ा समझना, दूसरे को तुच्छ समझना, दूसरों की अवहेलना करना और दूसरों के गुणों को सहन न करना, ये सब मान के दुष्परिणाम हैं।193
(ग) माया - जीव में उत्पन्न होने वाले कपट आदि भावों को ही माया की संज्ञा दी गई है। माया अपने दोषों पर पर्दा डालती है, मैत्री भाव का नाश करती है और बुराईयों का आह्वान करती है।।94
(घ) लोभ - लोभ, लालसा, तृष्णा इत्यादि लोभ की संज्ञाएँ हैं। खाने-कमाने में, भोग-विलास में अनावश्यक आसक्ति का होना, लोभ का कार्य है। लोभ सब गुणों का विनाशक है और अवगुणों का पोषक है।195
7. ज्ञान
सामान्य-विशेषात्मक वस्तु में से उसके विशेष अंश को जानने वाले आत्म-व्यापार को ज्ञान कहते हैं। अथवा जिसके द्वारा त्रिकालविषयक को जाना जा सके, वह ज्ञान है।96 यह ज्ञान आठ प्रकार का कहा गया है -