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दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी वस्तु या सिद्धान्त को लेकर यौक्तिक विचार किया जाये, वह (विचार) दर्शन बन जाता है, जैसे-राजनीति-दर्शन, समाज-दर्शन, आत्म-दर्शन, धर्म-दर्शन आदि-आदि।
यह सामान्य स्थिति या आधुनिक स्थिति है। पुरानी परिभाषा इतनी व्यापक नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दर्शन शब्द का प्रयोग सबसे पहले 'आत्मा से सम्बन्ध रखने वाले विचार' के अर्थ में हुआ है। दर्शन यानी वह तत्त्व-ज्ञान जो आत्मा, कर्म, धर्म, स्वर्ग, नरक आदि का विचार करे।
आगे चलकर बृहस्पति के लोकायत मत और अजित केशकम्बली के उच्छेदवाद तथा तज्जीव-तच्छरीरवाद जैसी नास्तिक विचारधाराएँ सामने आयीं। तब दर्शन का अर्थ कुछ व्यापक हो गया। वह सिर्फ आत्मा से ही सम्बद्ध नहीं रहा। व्यापक संदर्भ में दर्शन की परिभाषा हुई- .
__ दर्शन-अर्थात् विश्व की मीमांसा, अस्तित्व या नास्तित्व का विचार अथवा सत्य-शोध का साधन।
पाश्चात्य दार्शनिकों की, विशेषत: कार्ल मावर्स की विचारधारा के आविर्भाव ने दर्शन का क्षेत्र और अधिक व्यापक बना दिया। जैसा कि. मावर्स ने कहा है—"दार्शनिक ने जगत् को समझने की चेष्टा की है। प्रश्न यह है कि उसका परिवर्तन कैसे किया जाए।" मावर्स-दर्शन विश्व और समाज दोनों तत्त्वों का विचार करता है। वह विश्व को समझने की अपेक्षा समाज को बदलने में दर्शन की अधिक सफलता मानता है। आस्तिकों ने समाज पर कुछ भी विचार नहीं किया ऐसा तो नहीं; फिर भी उनका अन्तिम लक्ष्य नि:श्रेयस् (मोक्ष) रहा किन्तु निःश्रेयस् के साथ अभ्युदय (इह-लौकिक लाभ) सर्वथा उपेक्षित नहीं हुआ। कहा भी है
यदाभ्युदयिकन्चैव, नैश्रेयसिकमेव च। ___ सुखं साधयितुं मार्ग, दर्शयेत् तद् हि दर्शनम् ॥"
जो अभ्युदय और नि:श्रेयस्-दोनों से सम्बन्धित सुख को साधने का मार्ग दिखाए, वही दर्शन है।
नास्तिक धर्म-कर्म पर तो नहीं रुके, किन्तु फिर भी उन्हें समाज-परिवर्तन की बात नहीं सूझी। उनका पक्ष प्रायः खण्डनात्मक ही रहा। मावर्स ने समाज को बदलने के लिए ही समाज को देखा। आस्तिकों का दर्शन समाज से आगे चलता है। उनका लक्ष्य है शरीर-मुवित्त—पूर्ण स्वतन्त्रता-मोक्ष ।
नास्तिकों का दर्शन ऐहिक सुख-सुविधाओं के उपयोग में कोई खामी न रहे, इसलिए आत्मा का उच्छेद साधकर रुक जाता है। मावर्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद