Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ( स ) इस दृष्टि से भारतीय दार्शनिक चिन्तन धारागों का क्रमिक विकास, और घात-प्रतिघात से निष्पन्न प्रत्येक दर्शन के विकास को जानने का साधन भी जैन-दर्शन है। दार्शनिकों का ध्यान अभी तक इस ओर गया नहीं है, अतः जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी विद्वानों की उपेक्षा के विषय बने हुए हैं। परन्तु यह उपेक्षा घातक है, इसमें जरा भी संशय नहीं है । भारतीय राजनीति में सह अस्तित्व का सिद्धान्त स्वीकृत किया गया है। उसकी मूल दार्शनिक परम्परा की शोध जैन दार्शनिक ग्रन्थों से भली भाँति हो सकती है । क्या राजनीतिक, क्या सामाजिक, और क्या दार्शनिक, आज के जीवन में सर्वत्र सहअस्तित्व के सिद्धान्त की यावश्यकता है । आज के दाशंनिक विद्वानों को इस विषय पर गम्भीरता के साथ विचार करना होगा। डाक्टर मेहता के प्रस्तुत 'जैन-दर्शन' को देख कर विद्वानों की दृष्टि यदि जैन-दर्शन के मौलिक ग्रन्थों के अध्ययन की ओर गई, तो उनका श्रम सफल होगा। मैं इस ग्रन्थ के लिए उन्हें बधाई देता हूँ । भविष्य में भी वे इसी प्रकार अपनी श्रेष्ठ कृतियाँ देते रहेंगे, यह आशा करता हूँ। ___ सन्मति ज्ञान पीठ के अधिकृत अधिकारीगण ने इस ग्रन्थ को प्रकाशित करके जैन दर्शन के अध्ययन की प्रगति में महत्वपूर्ण योग-दान दिया है । अतः वे भी धन्यवाद के योग्य हैं । मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में वे लोग सत्साहित्य के प्रकाशन में अपना उदार योग-दान देते रहेंगे । वाराणसी १८-३-५६ दलसुख भाई मालवणिया

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 405