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मूल था । महावीर ने सोचा कि वात क्या है ? क्या कारण है कि सभी वाद , एक दूसरे के विरोधी हैं ? उन्हें ऐसा मालूम पड़ा कि इस विरोध के मूल में मिथ्या आग्रह है। इसी आग्रह को उन्होंने ऐकान्तिक अाग्रह कहा। उन्होंने वस्तुतत्त्व को ध्यान से देखा । उन्हें मालूम हुआ कि वस्तु में तो बहुत से धर्म हैं, फिर क्या कारण है कि कोई किसी एक धर्म को ही स्वीकार करता है तो कोई किसी दूसरे धर्म को ही यथार्थ मानता है ? दृष्टि की संकुचितता के कारण ऐसा होता है, यह हल निकला। उन्होंने कहा कि दार्शनिक दृष्टि संकुचित न होकर विशाल होनी चाहिये । जितने भी धर्म वस्तु में प्रतिभासित होते हों, . सब का समावेश उस दृष्टि में होना चाहिये। यह ठीक है कि हमारा दृष्टिकोण किसी समय किसी एक धर्म पर विशेष भार देता है, किसी समय किसी दूसरे धर्म पर । इतना होते हुए भी, यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तु में अमुक धर्म है, और कोई धर्म नहीं। वस्तु का पूर्ण विश्लेषण करने पर यह प्रतीत होगा कि वास्तव में हम जिन धर्मों का निषेध करना चाहते हैं वे सारे धर्म वस्तु में विद्यमान है। इसी दृष्टि को सामने रखते हुए उन्होंने वस्तु को अनन्त धर्मात्मक कहा । वस्तु स्वभाव से ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है । इसी दृष्टि का नाम अनेकान्तवाद है। किसी एक धर्म का प्रतिपादन 'स्यात्' (किसी एक अपेक्षा से या किसी एक दृष्टि से) शब्द से होता है अतः अनेकान्तवाद को स्याद्वाद भी कहते हैं । दार्शनिक क्षेत्र में महावीर की यह बहुत बड़ी देन है। इससे उनकी उदारता एवं विशालता प्रकट होती है । यह कहना ठीक नहीं कि अनेकान्तवाद एकान्तवादों का समन्वय मात्र है। अनेकान्तवाद एक विलक्षण वाद है। इसकी जाति एकान्तवाद से भिन्न है । एकान्तवादों का समन्वय हो ही नहीं सकता। समन्वय तो सापेक्षवादों का हो सकता है। अनेकान्तवाद सापेक्षवादों का समन्वय अवश्य है। सापेक्षवाद अनेकान्तवाद से अभिन्न हैं । अनेक एकान्त दृष्टियों को जोड़ने मात्र से अनेकान्त दृष्टि नहीं बन सकती । अनेकान्त दृष्टि एक विशाल एवं स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसमें अनेक सापेक्ष हप्टियां हैं।
जनदर्शन की विशेषता : महावीर ने जिस दृष्टि का प्रचार किया उस दृष्टि की विशेषताओं पर प्रकाश डालना आवश्यक है। जैनदर्शन की मुख्य विशेषता स्याद्वाद है, यह हमने देखा। महावीर ने वस्तु का पूर्ण स्वरूप हमारे सामने रखने की पूरी कोशिश की और उसी का परिणाम स्याद्वाद के रूप