Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 13
________________ उपोद्घात, अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ मैंने श्री हरिभद्रसूरिरचित षड्दर्शनसमुच्चय संस्कृतमें पढ़ा है लेकिन श्रीगुणरत्नसूरि की टीका का मूलभाग मेरे देखनेमें नहीं आया । टीकाके वारे में जो कुछ पढ़ा है सो पूज्य मुनि श्री तिलकविजयजीका हिन्दी भाषान्तर ही पढ़ा है और प्रूफ सुधारते समय उसका पारायण भी हुआ है । इतने ही से श्रीहरिभद्रसूरिरचित 'जैनदर्शन' की श्री गुणरत्नसूरिकृत टीका पर कुछ लिखने की योग्यता नहीं आ सकती । इसके सिवाय उस टीकाके इस हिन्दी अनुवाद की प्रस्तावना लिखना एक तरहका धाष्टय और अविनय भी है। क्यों कि पूज्य श्रीतिलकविजयजी महाराजके साथ मेरा नाता गुरुशिष्यका है । जव मुझे जैनधर्मके वारेमें कुछ भी मालूम नहीं था तब प्रथम आपसे ही अप्रत्यक्षरूपसे मुझे जैनधर्मका श्रद्धान हुआ । जव मैं निपाणी (वेलगाम) की राष्ट्रीयपाठशाला, १९२२ में अध्यापक था तव सुभाग्यवशात् आपका दर्शन हुआ और आपही मुझे जैनधर्म के प्रतीकरुप मालूम पड़े। प्रतीक प्रत्यक्षरुपसे कुछ देता लेता नहीं है बल्कि प्रतिमा-- राधनासेभी ऐसे बहुत लाभ होते हैं कि जो दूसरे किसी साधनके द्वारा नहीं मिल सकते । द्रोणाचार्य और एकलव्यकी कथा तो सुप्रसिद्ध ही है। मेरेवारेमेभी वैसा ही हुआ। फर्क इतना ही है कि द्रोणाचार्य की अनुदारताके कारण एकलव्यको अप्रत्यक्षतया विद्या सीखनी पड़ी थी लेकिन मुझे तो मेरे संकोच (shyness) के कारण ही वैसा करना पड़ा। पूज्य श्री तिलकविजयजी महाराज की उदारता और समभाव प्रसिद्ध भी है और उसका लामही मुझे होता था । तथापि प्रत्यक्षरूपमें आपसे धर्मकी संथा लेना नहीं बना। प्रसङ्गवशात् मैंने कुछ जैनग्रन्थोंका अध्ययन किया और कुछ दिगम्बर मुनिओंका दर्शनलाभ होनेसे मेरे अन्तःकरण पर जैनधर्मका रहस्यजम गया । दिन प्रति दिन जैनधर्मके प्रति मेरी श्रद्धा

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