Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 4
________________ २२] જ્ઞાનાંજલિ नहीं है किन्तु आवश्यकचूर्णि, वृत्ति आदिमें इधर-उधर विप्रकीर्णकरूपमें कुछ-कुछ आदेशोंका उल्लेख पाया जाता है। (पत्र ४६५ तथा बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति भा० १ पत्र. ४४ टि० ६). (५) सैद्धान्तिक, कार्मग्रन्थिकादि - जैन आगमोंकी परम्पराको मानने वाले आचार्य सैद्धान्तिक कहलाते हैं, कर्मवादके शास्त्रोके पारम्पर्यको माननेवाले आचार्य कार्मग्रन्थिक कहे जाते हैं, तर्कशास्त्रकी पद्धतिसे आगमिक पदार्थोंका निरूपण करने वाले स्थविर तार्किक माने गये हैं. जैन आगम आदि शास्त्रोंमें स्थान-स्थान पर इनका उल्लेख किया गया है. भिन्न-भिन्न कुल, गण आदिकी परम्पराओंमें जो-जो व्याख्याभेद एवं सामाचारीभेद अर्थात् आचारभेद थे उनका तत्तत् कुल, गण आदिके नामसे “ नाइलकुलिच्चयाणं आयाराओ आढवेत्ता जाव दसातो ताव णत्थि आयंबिलं, णिवीतिएणं पढंति " (व्यवहारचूर्णि) इस प्रकार देखा जाता है. (६) भद्रबाहुस्वामी- (वीर नि० १७० में दिवंगत)--- अन्तिम श्रुतकेवलीके रूपमें प्रसिद्ध ये आचार्य अपनी अन्तिम अवस्थामें जब ध्यान करनेके लिए नेपालदेशमें गए थे तब वीर संवत् १६० में श्रुतको व्यवस्थित करनेका सर्व-प्रथम प्रयत्न पाटलीपुत्रमें हुआ था, ऐसी परम्परा है. ग्यारह अंगोंके ज्ञाता तो संघमें विद्यमान थे किन्तु बारहवें अंगका ज्ञाता पाटलीपुत्र में कोई न था. अतएव संघकी आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य भद्रबाहुने कुछ श्रमणोंको बारहवें अंगकी वाचना देना स्वीकार किया, किन्तु सीखने वाले श्रमण श्रीस्थूलभद्रके कुतूहलके कारण बारहवां अंग समग्रभावसे सुरक्षित न रह सका. उसके चौदह पूर्वोमें से केवल दस पूर्वोकी ही परम्परा स्थूलभद्रके शिष्यों को मिली इस प्रकार आचार्य भद्रबाहुके बाद कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ किन्तु दस पूर्वोकी परम्परा चली अर्थात् बारह अंगों में से चार पूर्व जितना अंश विच्छिन्न हुआ. यहीसे उत्तरोत्तर विच्छेदनकी परम्परा बढ़ी. अन्ततोगत्वा बारहवां अंग ही लुप्त हो गया, एवं अंगों में केवल ग्यारह अंग ही सुरक्षित रहे. ग्यारह अंगोमें से भी जो प्रश्नव्याकरणसूत्र अभी उपलब्ध है वह किसी नई ही वाचनाका फल है क्योंकि समवायांग, नन्दी आदि आगमोंमें इसका जो परिचय मिलता है उससे यह भिन्न ही रूपमें उपलब्ध है. आचार्य भद्रबाहुने दशा, कल्प और व्यवहार इन तीन ग्रन्थोकी रचना की, यह सर्वसम्मत है किन्तु इन्होंने निशीथकी भी रचना की ऐसा उल्लेख केवल पंचकल्प-चूर्णिकारने ही किया है. फिर भी आज निशीथसूत्रकी खंभातके श्रीशांतिनाथ ज्ञान-भण्डारकी वि० सं० १४३०में लिखी हुई प्रतिमें तथा वैसी अन्य प्रतियोंमें इसके प्रणेताका नाम विशाखगणि महत्तर बताया गया है. वह उल्लेख इस प्रकार है: दसण-चरित्तजुत्तो गुत्तो गुत्तीसु सजणहिपसी । णामेण विसाहगणी महतरओ णाणमंजसा ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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