Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 27
________________ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય निर्माण किया है. अंगबाह्य आगम वे हैं जिनकी रचना श्रमण भगवान् महावीरके अन्य गीतार्य स्थविरों, शिष्यों-प्रशिष्यों एवं उनके परम्परागत स्थविरों ने की थी. स्थविरोंने इन्हीं आगमोंके कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये हैं. निश्चित किये गये समयमें पढ़े जाने वाले आगम कालिक हैं और किसी भी समयमें पढ़े जाने वाले आगम उत्कालिक हैं. आज सैकडों वर्षोंसे इनके मुख्य विभाग अंग, उपांग, छेद, मूल, आगम, शेष आगम एवं प्रकीर्णकके रूपमें रूढ़ हैं. प्राचीन युगमें इन आगमोंकी संख्या नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रके अनुसार चौरासी थी परन्तु आज पैंतालिस है. नंदीसूत्र में एवं पाक्षिकसूत्रमें जिन आगमोंके नाम दिये हैं उनमेंसे आज बहुतसे आगम अप्राप्य हैं जब कि आज माने जानेवाले आगमोंको संख्यामें नये नाम भी दाखिल हो गये हैं जो बहुत पीछेके अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दीके प्रथम चरणके भी हैं. आज माने जानेवाले पैंतालीस आगमोंमेंसे बयालीस आगमोंके नाम नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रमें पाये जाते हैं किन्तु आज आगमोंका जो क्रम प्रचलित है वह ग्यारह अंगोंको छोड़ कर शेष आगमोंका नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रमें नहीं पाया जाता. नंदीसूत्रकारने अंग आगमको छोड़कर शेष सभी आगमोंको प्रकीर्णकोंमें समाविष्ट किया है. आगमके अंग, उपांग, छेद, प्रकीर्णक आदि विभागोंमेंसे अंगों के बारह होनेका समर्थन स्वयं अंग ग्रंथ भी करते हैं. उपांग आज बारह माने जाते हैं किन्तु स्वयं निरयावलिका नामक उपांगमें उपांगके पांच वर्ग होनेका उल्लेख है. छेद शब्द नियुक्तियोंमें निशीथादिके लिए प्रयुक्त है. प्रकीर्णक शब्द भी नंदीसूत्र जितना तो पुराना है ही किन्तु उसमें अंगेतर सभी आगमोंको प्रकीर्णक कहा गया है. अंग आगमोंको छोड़कर दूसरे आगमों का निर्माण अलग-अलग समयमें हुआ है. पण्णवणा सूत्र श्यामार्यप्रणीत है. दशा, कल्प एवं व्यवहार सूत्रके प्रणेता चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं. निशीथसूत्रके प्रणेता आर्य भद्रबाहु या विशाखगणि महत्तर हैं. अनुयोगद्वारसूत्रके निर्माता स्थविर आर्यरक्षित हैं. नंदीसूत्रके कर्ता श्री देववाचक है. प्रकीर्णकोंमें गिने जाने वाले चउसरण, आउरपञ्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताकाके रचयिता वीरभद्रगणि हैं. ये आराधनापताकाकी प्रशस्तिके 'विक्कमनिवकालाओ अठुत्तरिमे समासहस्सम्मि' और 'अत्तरिमे समासहस्सम्मि' पाठभेदके अनुसार विक्रम संवत् १००८ या १०७८ में हुए हैं. बृहटिप्पणिकाकारने आराधनापताकाका रचनाकाल 'आराधनापताका १०७८ वर्षे वीरभद्राचार्यकृता' अर्थात् सं० १०७८ कहा है. 'आराधनापताका' में ग्रंथकारने 'आराहणाविहिं पुण भत्तपरिणाइ वण्णिमो पुचि' (गाथा ५१) अर्थात् 'आराधनाविधिका वर्णन हमने पहले भक्त-परिज्ञामें कर दिया है' ऐसा लिखा है. इस निर्देशसे यह ग्रंथ इन्हींका रचा हुआ सिद्ध होता है. आजके चउसरण एवं आउरपञ्चक्खाणके रचना-क्रमको देखनेसे ये प्रकीर्णक भी इन्हींके रचे हुए प्रतीत होते हैं. वीरभद्र की यह आराधनापताका यापनीय ‘आचार्यप्रणीत आराधना भगवती' का अनुकरण करके रची गई है. नंदीसूत्रमें 'आउरपञ्चक्खाण' का जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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