Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ જૈન આગમવાર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય (૫૯ देखा जाता है. जैन आगमोंके नियुक्ति भाष्य-चूर्णि आदिमें अनेक स्थानों पर एकार्थक शब्द दिये जाते हैं और वहाँ कहा भी जाता है कि---"भिन्न-भिन्न देशोंमें रहनेवाले शिष्यों को मतिभ्रम न हो इस लिए एकार्थक शब्द दिये हैं". इस उल्लेखसे भी यही प्रतीत होता है कि--अर्धमागधीका स्वरव्यञ्जनादि परिवर्तन आदिके अतिरिक्त 'तत्तत्प्रान्तीय भाषाओं के शब्दोंका संग्रह ' यह भी एक प्रमुख लक्षण है. ३. वास्तव में प्राकृत भाषाओंके प्राचीन ग्रन्थ ही इन भाषाओके पृथक्करणके लिये अकाट्य साधन हैं और सचमुच ही उपर्युक्त दो साधनोंकी अपेक्षा यह साधन ही अतिउपयुक्त साधन है. इसका उपयोग डॉ० पिशल आदि विद्वानोंने अतिसावधानीसे किया भी है, तथापि मैं मानता हूँ कि वह अपर्याप्त है. क्योंकि डॉ० पिशल आदिने जिस विशाल साहित्यका उपयोग किया है वह प्रायः अर्वाचीन प्रतियोंके आधार पर तैयार किया गया साहित्य था जिसमें भाषाके मौलिक स्वरूप आदिका काफी परिवर्तन हो गया है. इसी साहित्य की प्राचीन प्रतियों को देखते हैं तब भाषा और प्रयोगोंका महान् वैलक्षण्य नजर आता है. खुद डॉ० पिशल महाशयने भी इस विषयका उल्लेख किया है. दूसरी बात यह है कि---डॉ० पिशल आदि विद्वानोंने ऐतिहासिक तथ्यके आधार पर जिनमें प्राकृत भाषाप्रवाहोंके मौलिक अंश होनेकी अधिक संभावना है और जो प्राकृत भाषाओंके स्वरूपनिर्णयके लिये अनिवार्य साधनकी भूमिकारूप हैं ऐसे प्राचीनतम जैन आगमोंका जो प्राचीन प्राकृतव्याख्या साहित्य है उसका उपयोग बिलकुल किया ही नहीं है. ऐसा अति प्राचीन श्वेतांबरीय प्राकृत व्याख्यासाहित्य जैन आगमोंकी नियुक्ति-भाष्य-महाभाष्य-चूर्णियां हैं और इतर साहित्यमें कुवलयमालाकहा, वसुदेवहिंडी, चउप्पन्नमहापुरिसचरियं आदि हैं, तथा दिगंबरीय साहित्यमें धवल, जयधवल, महाधवल, तिलोयपण्णत्ती आदि महाशास्त्र हैं. यद्यपि दिगंबर आचार्योंके ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्यके आधार पर श्वेतांबर जैन आगमादि ग्रन्थों की अपेक्षा कुछ अर्वाचीन भी हैं तथापि प्राकृत भाषाओंके निर्णयमें सहायक जरूर हैं. मुझे तो प्रतीत होता है कि--प्राकृत भाषाओंके विद्वानोंको प्राकृत भाषाओंको व्यवस्थित करनेके लिये डॉ० पिशलके प्राकृतव्याकरणकी भूमिकाके आधार पर पुनः प्रयत्न करना होगा. यहाँ पर जिस नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-कथाग्रन्थ आदि श्वेतांबर-दिगंबर साहित्यका निर्देश किया है वह अतिविस्तृत प्रमाणमें है और इसके प्रणेता स्थविर केवल धर्मतत्त्वोंके ही ज्ञाता थे ऐसा नहीं किन्तु वे प्राकृत भाषाओके भी उत्कृष्ट ज्ञाता थे. प्राचीन प्राकृत भाषाओंकी इनके पास मौलिक विरासत भी थी. जैन आगमोकी मौलिक भाषा अर्धमागधी कही जाती है. उसके स्वरूपका पता लगाना आज शक्य नहीं है. इतना ही नहीं किन्तु वलभीमें आगमोंका जो अन्तिम व्यवस्थापन हुआ उस समय भाषाका स्वरूप क्या था, इसका पता लगाना भी माज कठिन है. इसका कारण यह है कि---आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42