Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 1
________________ जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय जैन आगमधर स्थविर और आचार्य जैनागमोंमें वर्तमानमें उपलभ्यमान द्वादश अंगोंकी सूत्ररचना कालक्रमसे भगवान् गणधरने की. वीर-निर्वाणके बाद प्रारम्भिक शताब्दियोंमें इन आगमोंका पठन-पाठन पुस्तकोंके आधार पर नहीं, अपितु गुरुमुखसे होता था. ब्राह्मणोंके समान पढ़ने-पढ़ाने वालोंके बीच पिता-पुत्रके सम्बन्धकी सम्भावना तो थी ही नहीं. वैराग्यसे दीक्षित होने वाले व्यक्ति अधिकांशतया ऐसी अवस्थामें होते थे, जिन्हें स्वाध्यायकी अपेक्षा बाह्य तपस्यामें अधिक रस मिलता था. अतएव गुरु-शिष्योंका अध्ययनअध्यापनमूलक सम्बन्ध उत्तरोत्तर विरल होना स्वाभाविक था, जैन आचारकी मर्यादा भी ऐसी थी कि पुस्तकोंका परिग्रह भी नहीं रखा जा सकता था. ऐसी दशामें जैनश्रुतका उत्तरोत्तर विच्छेद होना आश्चर्यकी बात नहीं थीं. उसकी जो रक्षा हुई वही आश्चर्यकी बात है. इस आश्चर्यजनक घटनामें जिन श्रुतधर आचार्योंका विशेष योगदान रहा है, जिन्होंने न केवल मूल सूत्रपाठोंको व्यवस्थित करनेका प्रयत्न किया अपितु उन सूत्रोंकी अर्थवाचना भी दी, जिन्होंने नियुक्ति आदि विविध प्रकारकी व्याख्याएं भी की, एवं आनेवाली संततिके लिए श्रुतनिधिरूप महत्त्वपूर्ण सम्पत्ति विरासत रूपसे दे गये, उन अनेक श्रुतधरोका परिचय देनेका प्रयत्न करूंगा. इन श्रुतधरोंमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनका नाम भी हमारे समक्ष नहीं आया है. यद्यपि यह प्रयत्नमात्र है-पूर्ण सफलता मिलना कठिन है, तथापि मैं आपको कुछ नई जानकारी करा सका तो अपना प्रयत्न अंशतः सफल मानूंगा. (१) सुधर्मस्वामी (वीर नि० ८ में दिवंगत ) - आचार आदि जो अंग उपलब्ध हैं * १४-१६ अक्तूबर, सन् १९६१में श्रीनगर (काश्मीर )में हुई अखिल भारतीय प्राच्यविद्यापरिषदके 'प्राकृत और जैनधर्म विभागके अध्यक्ष पदसे प्रस्तुत किया अभिभाषण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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