Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya Author(s): Punyavijay Publisher: Punyavijayji View full book textPage 2
________________ २०] જ્ઞાનાંજલિ वे सुधर्मस्वामीकी वाचनानुगत माने जाते हैं. तात्पर्य यह है कि इन्द्रभूति आदि गणधरोंकी शिष्यपरम्परा अन्ततोगत्वा सुधर्मस्वामीके शिष्योंके साथ मिल गई है. उसका मूल सुधर्मस्वामीकी वाचनामें माना गया है. भगवती जैसे आगमोंमें यद्यपि भगवान् महावीर और इन्द्रभूति गौतमके बीच हुए संवाद आते हैं किन्तु उन संवादोंकी वाचना सुधर्माने अपने शिष्यों को दी जो परम्परासे आज उपलब्ध है- ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि आगमोंके टीकाकारोंने एक स्वरसे यही अभिप्राय व्यक्त किया है कि तत्तत् आगमकी वाचना सुधर्माने जम्बूको दी. यद्यपि सुधर्माकी अंगोंकी वाचनाका अविच्छिन्न रूप आज तक सुरक्षित नहीं रहा है फिर भी जो भी सुरक्षित है उसका सम्बन्ध सुधर्मासे जोड़ा जाता है, यह निर्विवाद है. गणधरोंके वर्णनप्रसंगमें सुधर्माकी जो प्रशंसा आती है उसे स्वयं सुधर्मा तो कर नहीं सकते, यह स्पष्ट है. अतएव तत्तत् सूत्रों के प्रारम्भिक भागकी रचनामें आगमोके विद्यमान रूपके संकलनकर्ताका हाथ रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं. (२) शय्यंभव (वीर नि० ८३ में दिवंगत)-- अपने पुत्र मनकके लिए दशवकालिककी रचना कर इन्होंने जैन श्रमणों के आचारका आचारांगके बाद एक नया सीमास्तम्भ डाला है, इसकी रचनाके बाद इतना महत्त्व बढ़ा कि जैन श्रमणोंको प्रारम्भमें जो आचारांगसूत्र पढ़ाया जाता था उनके स्थान पर यही पढ़ाया जाने लगा (व्यवहारभाष्य० उ० ३, गा० १७६) इतना ही नहीं, पहले जहाँ आचारांगके शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनके बाद भ्रमण उपस्थापनाका अधिकारी होता था वहाँ अब दशवैकालिकके चौथे षड्जीवनिकाय नामक अध्ययनके बाद उपस्थापनाके योग्य समझा गया (वही गा० १७४). पहले जहां आचारांगके द्वितीय अध्ययनके पंचम उद्देशगत आमगंध सूत्रके अध्ययनके बाद श्रमण पिण्डकल्पी होता था वहाँ अब दशवैकालिकके पंचम पिण्डैषणा नामक अध्ययनकी वाचनाके बाद श्रमण पिण्डकल्पी होने लगा (वही, गा० १७५). दशवैकालिकसूत्र दिगम्बरों ( सर्वार्थसिद्धि १-२०) एवं यापनीयोंको भी बहुत समय तक समान रूपसे मान्य रहा है, यह भी इसकी विशेषता है. (३) प्रादेशिक आचार्य – जिनके नामका तो पता नहीं किन्तु जो विभिन्न देशोंमें आगमोकी प्रवर्त्तमान व्याख्याओंके प्रवर्तक रहे उनका परिचय तत्तद्देश-प्रदेशसे सम्बद्ध रूपसे मिलता है. अतण्व मैंने उन्हें "प्रादेशिक आचार्य"की संज्ञा दी है. सूत्रकृतांगकी चूर्णिमें (पत्र. ९० ) 'पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः. प्रतीच्य-परदिनिवासिनस्त्वेवं कथयन्ति' इस प्रकार पौरस्त्य पाश्चात्य एवं दाक्षिणात्य आचार्योका उल्लेख पाया जाता है. . व्यवहारसूत्रकी चूर्णिमें " एके आचार्या लाटा एवं ब्रुक्ते –ण्हाणविवजं वरणेवच्छं कीरति. अपरे आचार्या दाक्षिणात्या ब्रुवते-युगलं णियंसाविजति" इस प्रकार दाक्षिणात्य और लाटदेशमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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