Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 16
________________ ३४] જ્ઞાનાંજલિ पाये जाते हैं जिसका उदाहरणके रूपमें मैं यहां संक्षेपमें उल्लेख करता हूँ : आचारांगसूत्रको चूर्णिमें चूर्णिकारने नागार्जुनीय वाचनाके उल्लेखके अलावा 'पढिज्जइ य' ऐसा लिवकर उन्नीस स्थानों पर पाठभेदका उल्लेख किया है. आचार्य श्री शीलांकने भी अपनी वृत्तिमें उपलब्ध हस्तप्रतियोंके अनुसार कितने ही सूत्रपाठभेद दिये हैं. इसी प्रकार सूत्रकृतांगचूर्णिमें भी नागार्जुनीय वाचनाभेदके अलावा 'पठ्यते च, पठ्यते चान्यथा सद्भिः, अधवा, अथवा इह तु, मूलपाठस्तु, पाठविशेषस्तु, अन्यथा पाठस्तु, अयमररकल्पः, पाठान्तरम्' आदि वाक्योंका उल्लेख कर केवल प्रथम श्रुतस्कन्धकी चूर्णिमें ही लगभग सवा सौ जगह जिन्हें वास्तविक पाठभेद माने जाय ऐसे उल्लेखोंकी गाथाकी गाथाएं, पूर्वार्धके पूर्वार्ध व चरणके चरण पाये जाते हैं. द्वितीय श्रुतस्कन्धके पाठभेद तो इसमें शामिल ही नहीं किये गये हैं. आचार्य शीलांकने भी बहुतसे पाठभेद दिये हैं, फिर भी चूर्णिकारको अपेक्षा ये बहुत कम हैं, यहां पर एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि खुद आचार्य शीलांकने स्वीकार किया है कि 'हमें चूर्णिकारस्वीकृत आदर्श मिला ही नहीं.' यही कारण है कि उनको टीकामें चूर्णिकी अपेक्षा मूल सूत्रपाठ एवं व्याख्यामें बहुत अन्तर पड़ गया है. इसके साथ मेरा यह भी कथन है कि आज हमारे सामने जो प्राचीन सूत्रप्रतियां विद्यमान हैं उनके पाठभेदोंका संग्रह किया जाय तो सीमातीत पाठभेद मिलेंगे. इनमें अगर भाषाप्रयोगके पाठभेदोंको शामिल किया जाय तो, मैं समझता हूँ कि, पाठभेदोंका संग्रह करने वालेका दम निकल जाय. फिर भी यह कार्य कम महत्त्वका नहीं है. प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीकी ओरसे जो आगमोंका सम्पादन किया जा रहा है उसमें इस प्रकारकी महत्त्वपूर्ण सब बातोंको समाविष्ट करनेका यथासंभव पूरा ध्यान रखा जाता है. दशवकालिकसूत्र पर स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि, अज्ञातनामकर्तृक दूसरी चूर्णि और आचार्य हरिभद्रकृत शिष्यहितावृत्ति – ये तीन व्याख्याग्रंथ मौलिक व्याख्यारूप हैं. इनके अलावा जो अन्य वृत्तियां विद्यमान हैं उन सबका मूल स्रोत आचार्य हरिभद्रकी बृहदवृत्ति ही है. आचार्य हरिभद्रने अपनी वृत्तिमें “ तत्रापि 'कत्यहं, कदाऽहं, कथमहं' इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्य व्याख्यायते" (पत्र ८५-१) ऐसा कह कर पाठभेदोंकी झंझटसे छुटकारा ही पा लिया. अनामकर्तृक चूर्णि, जिसका उल्लेख आचार्य हरिभद्र अपनी वृत्तिमें वृद्ध-विवरणके नामसे करते हैं, उसमें कहीं-कहीं पाठभेदोंका उल्लेख होने पर भी उनका कोई खास संग्रह नहीं है. किन्तु स्थविर अगस्त्यसिंहविरचित चूर्णिमें सूत्रपाठोंका न्यूनाधिक्य, पाठभेद, व्याख्याभेद आदिका संग्रह काफी मात्रामें किया गया है. मूलसूत्रकी भाषाका स्वरूप भी वृद्धविवरण एवं आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिकी अपेक्षा बहुत ही भिन्न है. वृद्धविवरेण व आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिमें मूलसूत्रकी भाषाका स्वरूप आजकी प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियोंमें जैसा पाया जाता है, करीब-करीब उससे मिलता-जुलता ही है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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