Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 21
________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડમય [. इसी प्रकार आज अपने पास जो लाखों की तादादमें हस्तप्रतियां विद्यमान हैं, जिनकी व्यवस्थित सूचियां अभी तक नहीं बनी हैं, उन्हें टटोला जाय तो, बहुत संभव है कि, अपनी कल्पनामें भी न हो ऐसी प्राचीन प्राचीनतम अनेक कृतियां प्राप्त हो. आचार्य हरिभद्रने तत्त्वविचार और आचारके निरूपणमें समन्वयशैलीको विशिष्ट रूपसे आदर दिया है, अतः इनकी रचनाओं में प्रचुर गांभीर्य आया है. इनके विषयमें विद्वानोंने अनेक दृष्टियोंसे काफी लिखा है, तथापि प्रसंगवश यहां कुछ कहना अनुचित न होगा. इन्होंने आवश्यक, नन्दो, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम और पिण्डनियुक्ति --- इन जैन आगमों पर अप्रतिम एवं मौलिक वृत्तियों का निर्माण किया है. आवश्यकसूत्र पर तो इन्होंने दो वृत्तियाँ लिखी थीं. इनमें से शिष्यहिता नामक २२००० श्लोकपरिमित लघुवृत्ति ही प्राप्त है; किन्तु दुर्भाग्य है कि दार्शनिक चिन्तनोंके महासागर जैसी बृहद्वृत्ति अनुपलब्ध है. इस वृत्तिका इन्होंने अपनी शिष्यहिता-लघुवृत्तिके प्रारंभमें " यद्यपि मया तथान्यैः कृताऽस्य विवृत्तिस्तथापि संक्षेपात्" इस प्रकार निर्देश किया है. इसी बृहद्वृत्तिको लक्ष्य करके इन्होंने नन्दीसूत्रकी वृत्तिमें भी “ साङ्केतिकशब्दार्थसम्बन्धवादिमतमप्यावश्यक विचारयिष्यामः" इस प्रकारका उल्लेख किया है. इस उल्लेबसे पता लगता है कि इस बहवृत्तिमें इन्होंने कितने दार्शनिक वादोकी गहरी समीक्षा की होगी. इस बृहद्वृत्तिका प्रमाण मलधारी आचार्य हेमचन्द्रने अपने आवश्यक हारिभद्री वृत्तिके टिप्पनमें (पत्र २-१) " यद्यपि मया वृत्तिः कृता इत्येवंवादिनि वृत्तिकारे चतुरशीतिसहस्रप्रमाणाऽनेनैवावश्यकवृत्तिरपरा कृताऽऽसीदिति प्रवादः” इस उल्लेख द्वारा ८४००० श्लोक बतलाया है. आचार्य हरिभद्र अनेक विषयोंके महान् ज्ञाता थे. इनकी ग्रन्थरचनाओंका प्रवाह देखनेसे अनुमान होता है कि ये पूर्वावस्थामें सांख्यमतानुयायी रहे होंगे. इन्होंने उस युगके भारतीय दर्शनशास्त्रोंका गहगईसे अध्ययन करनेमें कोई कमी नहीं रखी थी. यही कारण है कि इन्होंने अतिगंभीरतापूर्वक समस्त दार्शनिक तत्त्वोंका जैनदर्शनके साथ समन्वय करनेका प्रयत्न किया है. इन्होंने धर्मसंग्रहणी, पंचवस्तुक, उपदेशपद, विंशतिविशिका, पंचाशक, योगशतक, श्रावकधर्मविधितंत्र, दिनशुद्धि आदि शास्त्रोंका तथा समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि कथाओंका प्राकृत भाषामें निर्माण कर प्राकृतभाषाको समृद्ध किया है. इन ग्रन्थोंमें दार्शनिक, शास्त्रीय, ज्योतिष, योग, चरित्र आदि अनेक विषयों का संग्रह है. इस प्रकार प्राकृतभाषाको इनकी बड़ो देन है. इसी प्रकार संस्कृतमें भी इन्होंने अनेकान्तवाद, अनेकान्तजयपताका, न्यायप्रवेश, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, धर्मबिन्दु, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय आदि ग्रन्थ बनाये हैं. इस प्रकार संस्कृतभाषाको भी इनकी बड़ी देन है. (४०) कोटयाचार्य - (वि० ९वीं शताब्दी) इन्होंने विशेषावश्यकमहाभाष्य पर टीका की है. इसके अलावा इनकी अन्य कोई रचना नहीं मिली है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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