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જ્ઞાનાંજલિ
उद्धरण किया है. इन उल्लेखों से पता चलता है कि इनकी आगमिक व्याख्यानगर्भित कोई कृति या कृतियाँ अवश्य होनी चाहिए, जो आज उपलब्ध नहीं हैं.
(३५) सिद्धसेनगणि ( वि० सं० छठी शती) - इनकी एक ही कृति प्राप्त हुई है - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत जीतकल्प पर रचित चूर्णि उपर्युक्त सिद्धसेनगणी क्षमाश्रमणसे ये सिद्धसेन गणि भिन्न हैं.
(३६) जिनदासगणी महत्तर (वि० ७वीं शताब्दी) - निशीथचूर्णिके प्रारम्भिक उल्लेखानुसार इनके विद्यागुरु प्रद्युम्नगगि क्षमाश्रमण थे. आज जो चूर्गियाँ उपलब्ध हैं इनमें से नन्दी, अनुयोगद्वार और निशीथकी चूर्णियां इन्हीं की रचनाएँ हैं.
(३७) गोपालिक महत्तर शिष्य (वि० ७वीं शताब्दी ) उत्तराध्ययनचूर्णिके रचयिता आचार्यने अपने नामका निर्देश न कर 'गोपालिक महत्तर शिष्य' इतना ही उल्लेख किया है. इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है.
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(३८) जिनभट या जिनभद्र (वि० ८वीं शताब्दी ) ये हरिभद्रके विद्यागुरु थे. आवश्यक वृत्तिके अन्तमें आवार्य हरिभद्रने इनका नामोल्लेख किया है. एतद्विषयक पुष्पिका इस • प्रकार है"कृतिः सिताम्बराचार्यजिन भटनिगदानुसारिणो विद्याधर कुलतिलकाचार्यजिनदत्त शिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासू नोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य. " इस उल्लेखमें 'जिनमटनिगदानुसारिणः ' वाक्य विद्यागुरुत्वका सूचक है. प्रत्यन्तरोंमें 'जिनभट ' के बजाय ' जिनभद्र ' नाम भी मिलता है. " गुरवस्तु व्याचक्षते " ऐसा लिखकर कई जगह हरिभद्रसूरिने अपनी कृतियोंमें इनके मन्तव्यका निर्देश किया है.
(३९) हरिभद्रसूरि (वि० ८वीं शताब्दी) इनका उपनाम 'भवविरह' भी है. अपनी कृतियोंमें इन्होंने 'भवविरह' पदका कई जगह प्रयोग किया है. कहीं कहीं इनकी कृतियों में केवल 'विरह' पदका प्रयोग होनेके कारण इन्हें विरहाङ्क भी कहते हैं. ये अपनेको अनेक ग्रन्थोंकी अन्तिम पुष्पिका 'धर्मतो याकिनीमहत्तरासून ' के रूपमें भी लिखते हैं. ये जैन आगमों के पारंगत आचार्य थे एवं दर्शनशास्त्रोंके प्रखर ज्ञाता थे. इन्होंने १४४४ प्रन्थों की रचना की ऐसा प्रघोष चला आता है. इन्होंने अपनी कृतियोंमें अपनी जिन-जिन रचनाओंके नाम निर्दिष्ट किये हैं उनमेंसे भी बहुतसे ग्रन्थ आज अप्राप्य हैं. फिर भी प्राचीन ज्ञानभंडारों को टटोलने से इनकी नई रचनाएँ प्राप्त होती हैं. कुछ वर्ष पहले ही खंभातके प्राचीन ताड़पत्रीय भंडारमेंसे इनका रचा हुआ योगशतक नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था. अभी हाल ही में कच्छ- मांडवीके खतरगच्छीय प्राचीन ज्ञानभंडरमेंसे इसी ग्रन्थकी स्वोपज्ञ टीकाकी वि० सं० १९६४में लिखी हुई ताड़पत्रीय प्रति भी प्राप्त हुई है.
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