Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय जैन आगमधर स्थविर और आचार्य जैनागमोंमें वर्तमानमें उपलभ्यमान द्वादश अंगोंकी सूत्ररचना कालक्रमसे भगवान् गणधरने की. वीर-निर्वाणके बाद प्रारम्भिक शताब्दियोंमें इन आगमोंका पठन-पाठन पुस्तकोंके आधार पर नहीं, अपितु गुरुमुखसे होता था. ब्राह्मणोंके समान पढ़ने-पढ़ाने वालोंके बीच पिता-पुत्रके सम्बन्धकी सम्भावना तो थी ही नहीं. वैराग्यसे दीक्षित होने वाले व्यक्ति अधिकांशतया ऐसी अवस्थामें होते थे, जिन्हें स्वाध्यायकी अपेक्षा बाह्य तपस्यामें अधिक रस मिलता था. अतएव गुरु-शिष्योंका अध्ययनअध्यापनमूलक सम्बन्ध उत्तरोत्तर विरल होना स्वाभाविक था, जैन आचारकी मर्यादा भी ऐसी थी कि पुस्तकोंका परिग्रह भी नहीं रखा जा सकता था. ऐसी दशामें जैनश्रुतका उत्तरोत्तर विच्छेद होना आश्चर्यकी बात नहीं थीं. उसकी जो रक्षा हुई वही आश्चर्यकी बात है. इस आश्चर्यजनक घटनामें जिन श्रुतधर आचार्योंका विशेष योगदान रहा है, जिन्होंने न केवल मूल सूत्रपाठोंको व्यवस्थित करनेका प्रयत्न किया अपितु उन सूत्रोंकी अर्थवाचना भी दी, जिन्होंने नियुक्ति आदि विविध प्रकारकी व्याख्याएं भी की, एवं आनेवाली संततिके लिए श्रुतनिधिरूप महत्त्वपूर्ण सम्पत्ति विरासत रूपसे दे गये, उन अनेक श्रुतधरोका परिचय देनेका प्रयत्न करूंगा. इन श्रुतधरोंमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनका नाम भी हमारे समक्ष नहीं आया है. यद्यपि यह प्रयत्नमात्र है-पूर्ण सफलता मिलना कठिन है, तथापि मैं आपको कुछ नई जानकारी करा सका तो अपना प्रयत्न अंशतः सफल मानूंगा. (१) सुधर्मस्वामी (वीर नि० ८ में दिवंगत ) - आचार आदि जो अंग उपलब्ध हैं * १४-१६ अक्तूबर, सन् १९६१में श्रीनगर (काश्मीर )में हुई अखिल भारतीय प्राच्यविद्यापरिषदके 'प्राकृत और जैनधर्म विभागके अध्यक्ष पदसे प्रस्तुत किया अभिभाषण । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] જ્ઞાનાંજલિ वे सुधर्मस्वामीकी वाचनानुगत माने जाते हैं. तात्पर्य यह है कि इन्द्रभूति आदि गणधरोंकी शिष्यपरम्परा अन्ततोगत्वा सुधर्मस्वामीके शिष्योंके साथ मिल गई है. उसका मूल सुधर्मस्वामीकी वाचनामें माना गया है. भगवती जैसे आगमोंमें यद्यपि भगवान् महावीर और इन्द्रभूति गौतमके बीच हुए संवाद आते हैं किन्तु उन संवादोंकी वाचना सुधर्माने अपने शिष्यों को दी जो परम्परासे आज उपलब्ध है- ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि आगमोंके टीकाकारोंने एक स्वरसे यही अभिप्राय व्यक्त किया है कि तत्तत् आगमकी वाचना सुधर्माने जम्बूको दी. यद्यपि सुधर्माकी अंगोंकी वाचनाका अविच्छिन्न रूप आज तक सुरक्षित नहीं रहा है फिर भी जो भी सुरक्षित है उसका सम्बन्ध सुधर्मासे जोड़ा जाता है, यह निर्विवाद है. गणधरोंके वर्णनप्रसंगमें सुधर्माकी जो प्रशंसा आती है उसे स्वयं सुधर्मा तो कर नहीं सकते, यह स्पष्ट है. अतएव तत्तत् सूत्रों के प्रारम्भिक भागकी रचनामें आगमोके विद्यमान रूपके संकलनकर्ताका हाथ रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं. (२) शय्यंभव (वीर नि० ८३ में दिवंगत)-- अपने पुत्र मनकके लिए दशवकालिककी रचना कर इन्होंने जैन श्रमणों के आचारका आचारांगके बाद एक नया सीमास्तम्भ डाला है, इसकी रचनाके बाद इतना महत्त्व बढ़ा कि जैन श्रमणोंको प्रारम्भमें जो आचारांगसूत्र पढ़ाया जाता था उनके स्थान पर यही पढ़ाया जाने लगा (व्यवहारभाष्य० उ० ३, गा० १७६) इतना ही नहीं, पहले जहाँ आचारांगके शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनके बाद भ्रमण उपस्थापनाका अधिकारी होता था वहाँ अब दशवैकालिकके चौथे षड्जीवनिकाय नामक अध्ययनके बाद उपस्थापनाके योग्य समझा गया (वही गा० १७४). पहले जहां आचारांगके द्वितीय अध्ययनके पंचम उद्देशगत आमगंध सूत्रके अध्ययनके बाद श्रमण पिण्डकल्पी होता था वहाँ अब दशवैकालिकके पंचम पिण्डैषणा नामक अध्ययनकी वाचनाके बाद श्रमण पिण्डकल्पी होने लगा (वही, गा० १७५). दशवैकालिकसूत्र दिगम्बरों ( सर्वार्थसिद्धि १-२०) एवं यापनीयोंको भी बहुत समय तक समान रूपसे मान्य रहा है, यह भी इसकी विशेषता है. (३) प्रादेशिक आचार्य – जिनके नामका तो पता नहीं किन्तु जो विभिन्न देशोंमें आगमोकी प्रवर्त्तमान व्याख्याओंके प्रवर्तक रहे उनका परिचय तत्तद्देश-प्रदेशसे सम्बद्ध रूपसे मिलता है. अतण्व मैंने उन्हें "प्रादेशिक आचार्य"की संज्ञा दी है. सूत्रकृतांगकी चूर्णिमें (पत्र. ९० ) 'पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः. प्रतीच्य-परदिनिवासिनस्त्वेवं कथयन्ति' इस प्रकार पौरस्त्य पाश्चात्य एवं दाक्षिणात्य आचार्योका उल्लेख पाया जाता है. . व्यवहारसूत्रकी चूर्णिमें " एके आचार्या लाटा एवं ब्रुक्ते –ण्हाणविवजं वरणेवच्छं कीरति. अपरे आचार्या दाक्षिणात्या ब्रुवते-युगलं णियंसाविजति" इस प्रकार दाक्षिणात्य और लाटदेशमें Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમઘર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [२१ विचरने वाले आचार्योंका उल्लेख मिलता है. कल्पचूर्णि एवं निशीथचूर्णिमें (भाग २ पत्र० १३४) भी लाटाचार्यका उल्लेख प्राप्त होता है. यहाँ लाटदेश भगवान् महावीरके विहारमें वर्णित लाढदेश नहीं, किन्तु गुजरातमें महीनदी और दमणके बीचके प्रदेशको समझना चाहिए, जिसके प्रमुख नगर भृगुकच्छ (भरुच) और दर्भावती (डभोई) आदि थे. भारतीय विद्याभवनके आचार्य पद्मश्री मुनि जिनविजयजी सम्पादित पुस्तकप्रशस्ति संग्रह पृष्ठ १०७ प्रशस्तिक्रमांक ६९ आदिमें " श्री वोसरि लाटदेशमण्डले महीदमुनयोरन्तराले समस्तव्यापारान् परिपन्थयति" इत्यादि उल्लेख भी पाये जाते हैं. जिनागमविषमपदपर्यायमें पंचकल्पके विषमपदपर्यायमें "लाडपरिवाडीए लाडवाचनायामित्यर्थः" ऐसा उल्लेख है. इसी प्रकार इसी ग्रन्थमें निशीथसूत्रके विषमपदपर्यायमें "लाडाचार्याभिप्रायात् . माधुराचार्याभिप्रायेण परओ राईए चिन्ताऽस्माकम्” इस तरह माथुराचार्यका भी उल्लेख पाया जाता है. इसी तरह षट्खण्डागमकी धवला टीकामें उत्तरपतिपत्ति व दक्षिणप्रतिपत्ति रूपसे जो दो प्रकारकी प्रतिपत्तियों का उल्लेख है वह भी मूलतः तत्तत्प्रदेशके आचार्योको विशेष रूपसे मान्य होने वाली परम्पराका ही निर्देश है (षट्खण्डागम भा० १ भूमिका पृ० ५७ तथा भा० ३ भूमिका पृ० १५). धवलाकारने इनका जो अर्थ किया है वह इस प्रकार है ; “ एसा दक्षिणपडिवत्ती । दक्खिणं उज्जुवं आयरियपरम्परागदमिदि एयट्ठो .............एसा उत्तरपडिवत्ती। उत्तरमणुज्जुवं आयरियपरम्पराए णागदमिदि एयट्ठो॥" - षट्खण्डागमः धवला, भा० ५, पृ० ३२ इससे प्रतीत होता है कि धवलाकारके समक्ष दक्षिणप्रतिपत्तिकी मान्यता परम्परागत थे। जब कि उत्तरप्रतिपत्ति परम्परागत नहीं थी. (४) पांच सौ आदेशोंके स्थापक - स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामीने आवश्यकनियुक्तिकी १०२३वीं गाथामें “पंचसयादेसवयणं व" इस गाथांशसे पांच सौ आदेशों का निर्देश किया है. आवश्यकचूर्णिकार श्री जिनदासमहत्तर तथा वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरिने “ पांच सौ आदेश "के विषयमें लिखा है ; “ अरिहप्पवयणे पंच आदेससताणि. ण वि अंगे ण वि उवंगे पाढो अस्थि एवं-मरुदेवा अणादि-वणस्सइकाइया अणंतरं उच्चट्टित्ता सिद्ध त्ति १। तहा सयंभूरमणमच्छाण पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि वलयसंठाणं मोत्तुं २। करड-उक्करडा य कुणालाए एते जधा तधा भणामि - करडउक्करडाण निगमणमूले वसही, देवयाणुकंपगं, रुद्रुसु पनरसदिवसवरिसणं कुणालाणगरिविणासो, ततो ततियवरिसे साएए णगरे दोण्ह वि कालकरणं, अहेसत्तमपुढवि कालणरगगमणं, कुणालाणगरिविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्त केवलनाणुप्पत्ती ३. एयं अबद्धं." (आवश्यकचूर्णि भा० १ पृष्ठ ६०१; हरिभद्रवृत्तिपत्र ४६५) अर्थात् जिन हकीकतोंका उल्लेख किसी अंग या उपांग आदिमें नहीं मिलता है किन्तु जो स्थविर आचार्योंके मुखोपमुख चली आई हैं उनका संग्रह " पाच सौ आदेश" कहलाता है. इन पांच सौ मादेशोंका कोई संग्रह आज उपलब्ध Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] જ્ઞાનાંજલિ नहीं है किन्तु आवश्यकचूर्णि, वृत्ति आदिमें इधर-उधर विप्रकीर्णकरूपमें कुछ-कुछ आदेशोंका उल्लेख पाया जाता है। (पत्र ४६५ तथा बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति भा० १ पत्र. ४४ टि० ६). (५) सैद्धान्तिक, कार्मग्रन्थिकादि - जैन आगमोंकी परम्पराको मानने वाले आचार्य सैद्धान्तिक कहलाते हैं, कर्मवादके शास्त्रोके पारम्पर्यको माननेवाले आचार्य कार्मग्रन्थिक कहे जाते हैं, तर्कशास्त्रकी पद्धतिसे आगमिक पदार्थोंका निरूपण करने वाले स्थविर तार्किक माने गये हैं. जैन आगम आदि शास्त्रोंमें स्थान-स्थान पर इनका उल्लेख किया गया है. भिन्न-भिन्न कुल, गण आदिकी परम्पराओंमें जो-जो व्याख्याभेद एवं सामाचारीभेद अर्थात् आचारभेद थे उनका तत्तत् कुल, गण आदिके नामसे “ नाइलकुलिच्चयाणं आयाराओ आढवेत्ता जाव दसातो ताव णत्थि आयंबिलं, णिवीतिएणं पढंति " (व्यवहारचूर्णि) इस प्रकार देखा जाता है. (६) भद्रबाहुस्वामी- (वीर नि० १७० में दिवंगत)--- अन्तिम श्रुतकेवलीके रूपमें प्रसिद्ध ये आचार्य अपनी अन्तिम अवस्थामें जब ध्यान करनेके लिए नेपालदेशमें गए थे तब वीर संवत् १६० में श्रुतको व्यवस्थित करनेका सर्व-प्रथम प्रयत्न पाटलीपुत्रमें हुआ था, ऐसी परम्परा है. ग्यारह अंगोंके ज्ञाता तो संघमें विद्यमान थे किन्तु बारहवें अंगका ज्ञाता पाटलीपुत्र में कोई न था. अतएव संघकी आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य भद्रबाहुने कुछ श्रमणोंको बारहवें अंगकी वाचना देना स्वीकार किया, किन्तु सीखने वाले श्रमण श्रीस्थूलभद्रके कुतूहलके कारण बारहवां अंग समग्रभावसे सुरक्षित न रह सका. उसके चौदह पूर्वोमें से केवल दस पूर्वोकी ही परम्परा स्थूलभद्रके शिष्यों को मिली इस प्रकार आचार्य भद्रबाहुके बाद कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ किन्तु दस पूर्वोकी परम्परा चली अर्थात् बारह अंगों में से चार पूर्व जितना अंश विच्छिन्न हुआ. यहीसे उत्तरोत्तर विच्छेदनकी परम्परा बढ़ी. अन्ततोगत्वा बारहवां अंग ही लुप्त हो गया, एवं अंगों में केवल ग्यारह अंग ही सुरक्षित रहे. ग्यारह अंगोमें से भी जो प्रश्नव्याकरणसूत्र अभी उपलब्ध है वह किसी नई ही वाचनाका फल है क्योंकि समवायांग, नन्दी आदि आगमोंमें इसका जो परिचय मिलता है उससे यह भिन्न ही रूपमें उपलब्ध है. आचार्य भद्रबाहुने दशा, कल्प और व्यवहार इन तीन ग्रन्थोकी रचना की, यह सर्वसम्मत है किन्तु इन्होंने निशीथकी भी रचना की ऐसा उल्लेख केवल पंचकल्प-चूर्णिकारने ही किया है. फिर भी आज निशीथसूत्रकी खंभातके श्रीशांतिनाथ ज्ञान-भण्डारकी वि० सं० १४३०में लिखी हुई प्रतिमें तथा वैसी अन्य प्रतियोंमें इसके प्रणेताका नाम विशाखगणि महत्तर बताया गया है. वह उल्लेख इस प्रकार है: दसण-चरित्तजुत्तो गुत्तो गुत्तीसु सजणहिपसी । णामेण विसाहगणी महतरओ णाणमंजसा ॥१॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય कित्ती कंतिपिणद्धो जसपत्तपडहो (2) तिसागरणिरुद्धो। पुणरुत्तं भमति महि ससि व्व गगणंगणं तस्स ॥२॥ तस्स लिहियं णिसीहं धम्मधुराधरणपधरपुजस्स । आरोगधारणिज्जं सिस्स-पसिस्सोवभोज्जं च ॥३॥ दिगम्बर परम्परामें श्वलाके अनुसार १४ अंगबाह्य अर्थाधिकार हैं. इनमें कल्प और व्यवहारको एक माना गया है तथा निशीथको अलग स्थान दिया गया है. इससे यह तो स्पष्ट होता है कि कल्प, व्यवहार और निशीथकी अंगबाह्य अर्थाधिकारकी परम्परा चली आती थी. भद्रबाहुकृत कल्प-व्यवहार जिस रूपमें आज श्वेताम्बर परम्परामें मान्य है उसी रूपमें दिगम्बर परम्परामें उल्लिखित अंगबाह्य कल्पादि मान्य थे या उससे भिन्न-यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, किन्तु उनका जो विषय बताया गया है यही विषय उपलब्ध भद्रबाहुकृत कल्पादिमें विद्यमान है. दोनों परम्पराओंके मतसे स्थविरकृत रचनाएं अंगबाह्य मानी जाती रही हैं. भद्रबाहु तक श्वेताम्बर दिगम्बरका मतभेद स्पष्ट नहीं था. इन तथ्योंके आधार पर संभावना की जा सकती है कि कल्प-व्यवहारके जिन अर्थाधिकारों का उल्लेख धवलामें है उन अर्थाधिकारोंका सूत्रात्मक व्यवस्थित संकलन सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहुने किया और वह संघको मान्य हुआ. इस दृष्टिसे धवलामें उल्लिखित कल्प-व्यवहार और निशीथ तथा उपलब्ध कल्प-व्यवहार और निशीथमें भेद माननेका कोई कारण नहीं है. फिर भी दोनोंकी एकताका निश्चयपूर्वक विधान करना कठिन है. आचार्य भद्रबाहु की जो विशेषता है वह यह है कि इन्होंने अपने उक्त ग्रंथोंमें उत्सर्ग और अपवादोंकी व्यवस्था की है. इतना ही नहीं किन्तु व्यवहारसूत्रमें तो अपराधोंके दण्डकी भी व्यवस्था की गई है. ऐसी दण्डव्यवस्था एवं आचार्य आदि पदवीकी योग्यता अदिके निर्णय सर्वप्रथम इन्हीं ग्रंथों में मिलते हैं. संघने ग्रंथोंको प्रमाणभूत माना यह आचार्य भद्रबाहुकी महत्ताका सूचक है. श्रमणोंके आचार के विषयमें दशवैकालिकके बाद दशा-कल्प आदि ग्रंथ दूसरा सीमास्तम्भ है. साथ ही एक वार अपवादकी शुरूआत होने पर अन्य भाष्यकारों व चूर्णिकारोंने भी उत्तरोत्तर अपवादोंमें वृद्धि की. संभव है कि इसी अपवाद-मार्गको लेकर संघमें मतभेदकी जड़ दृढ होती गई और आगे चल कर श्वेताम्बर-दिगम्बरका सम्प्रदाय-भेद भी दृढ हुआ. बृहत्कल्प भा० ६की प्रस्तावनामें मैंने अनेक प्रमाणोंके आधार पर यह सिद्ध किया है कि उपलब्ध नियुक्तियोंके कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु नहीं है किन्तु ज्योतिर्विद् वराहमिहिरके भ्राता । द्वितीय भद्रबाहु हैं जो विक्रमकी छठी शताब्दीमें हुए हैं. अपने इस कथनका स्पष्टीकरण करना यहाँ उचित है. जब मैं यह कहता हूं कि उपलब्ध नियुक्तियाँ द्वितीय भद्रबाहुकी हैं, श्रुतकेवली भद्रबाहुकी नहीं तब इसका तात्पर्य यह नहीं कि श्रुतकेवली भद्रबाहुने नियुक्तियोंकी रचना की ही नहीं. मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि जिस अन्तिम संकलनके रूपमें आज हमारे समक्ष नियुक्तियाँ उपलब्ध Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ हैं वे श्रुतकेवली भद्रबाहुकी नहीं हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि द्वितीय भद्रबाहुके पूर्व कोई नियुक्तियाँ थी ही नहीं. नियुक्ति रूपमें आगमव्याख्याकी पद्धति बहुत पुरानी है. इसका पता हमें अनुयोगद्धारसे लगता है. वहां स्पष्ट कहा गया कि अनुगम दो प्रकारका होता है : सुत्ताणुगम और निज्जुत्तिअणुगम. इतना ही नहीं किन्तु नियुक्तिरूपसे प्रसिद्ध गाथाएं भी अनुयोगद्वारमें दी गई हैं. पाक्षिकसूत्रमें भी " सनिज्जुत्तिए" ऐसा पाठ मिलता है. द्वितीय भद्रबाहुके पहले भी गोविन्द वाचककी नियुक्तिका उल्लेख निशीथभाष्य व चूर्णिमें मिलता है. इतना ही नहीं किन्तु वैदिकवाङ्मयमें भी निरुक्त अति प्राचीन है. अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जैनागमकी व्याख्याका नियुक्ति नामक प्रकार प्राचीन है. यह संभव नहीं कि विक्रमको छठी शताब्दी तक आगमोंकी कोई व्याख्या नियुक्तिके रूपमें हुई ही न हो. दिगम्बरमान्य मूलाचारमें भी आवश्यक-नियुक्तिगत कई गाथाएं हैं. इससे भी पता चलता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदायका स्पष्ट भेद होनेके पूर्व भी नियुक्तिकी परम्परा थी. ऐसी स्थितिमें श्रुतकेवली भद्रबाहुने नियुक्तियों की रचना की है - इस परम्पराको निर्मूल माननेका कोई कारण नहीं है. अतः यही मानना उचित है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुने भी नियुक्तियों की रचना की थी और बादमें गोविन्द वाचक जैसे अन्य आचार्योंने भी. उसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते नियुक्तियोंका जो अन्तिम रूप हुआ वह द्वितीय भद्रबाहुका है. अर्थात् द्वितीय भद्रबाहुने अपने समय तककी उपलब्ध नियुक्ति-गाथाओंका अपनी नियुक्तियोंमें संग्रह किया हो, साथ ही अपनी ओरसे भी कुछ नई गाथाएं बना कर जोड दी. यही रूप आज हमारे सामने नियुक्तिके नामसे उपलब्ध है. इस तरह क्रमशः नियुक्ति गाथाएं बढ़ती गईं. इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि दशवकालिक की दोनों चूर्णियों में प्रथम अध्ययनकी केवल ५७ नियुक्ति गाथाएं हैं जब कि हरिभद्रकी वृत्तिमें १५७ हैं. इससे यह भी सिद्ध होता है कि द्वितीय भद्रबाहुने नियुक्तियों का अन्तिम संग्रह किया. इसके बाद भी उसमें वृद्धि होती है. इस स्पष्टीकरणके प्रकाशमें यदि हम श्रुतकेवली भद्रवाहुको भी नियुक्तिकार मानें तो अनुचित न होगा. (७) श्यामाचार्य (वीर नि० ३७६में दिवंगत)- इन्होंने प्रज्ञापना उपांगसूत्रकी रचना की है. प्रज्ञापनासूत्रके “वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण" इस प्रारंभिक उल्लेखके अनुसार ये वाचकवंशके २३ वें पुरुष थे. (८, ९, १०) आर्य सुहस्ति (वीर नि० २९१), आर्यसमुद्र (वीर नि० ४७०) और आर्य मंगु (वीर नि० ४७०)- इन तीन स्थविरोंकी कोई खास कृति हमारे सामने नहीं है, किन्तु जैन आगमोंमें, खासकर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदिमें नाम-स्थापना आदि निक्षेप द्वारा पदार्थमात्रका जो समप्रभावसे प्रज्ञापन किया जाता है इसमें जो द्रव्य-निक्षेप आता है इस विषयमें इन तीन स्थविरों की मान्यताका उल्लेख कल्पचूर्णिमें किया गया है: Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [ ૨૫ __“किंच आदेसा जहा- अज्जमग्र तिविहं संखं इच्छति, एगभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च. अजसमुद्दा दुविहं, बदाउयं अभिमुहनाम-गोत्तं च. अज्जसुहत्थी एगं अभिमुहणाम-गोयं इच्छति" ये तीन महापुरुष जैन आगमोंके श्रेष्ठ ज्ञाता माननीय स्थविर थे. (११) पादलिप्ताचार्य (वीर नि० ४६७के आसपास)-इन आचार्यने तरंगवई नामक प्राकृत-देशी भाषामयी अति रसपूर्ण आख्यायिकाकी रचना की है. यह आख्यायिका आज प्राप्त नहीं है किन्तु हारिजगच्छीय आचार्य यश (?) रचित प्राकृत गाथाबद्ध इसका संक्षेप प्राप्त है. डा० अर्न्स लॉयमानने इस संक्षेपमें समाविष्ट कथांशको पढ़कर इसका जर्मनमें अनुवाद किया है. यही इस आख्यायिकाकी मधुरताकी प्रतीति है. दाक्षिण्यांक उद्द्योतनसूरि, महाकवि धनपाल आदिने इस रचनाकी मार्मिक स्तुतिकी है. इन्हीं आचार्यने ज्योतिष्करंडकशास्त्रकी प्राकृत टिप्पनकरूप छोटी सौ वृत्ति लिखी है. इसका उल्लेख आचार्य मलयगिरिने अपनी सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिमें (पत्र ७२ व १००) और ज्योतिष्करंडकवृत्तिमें (पत्र ५२, १२१, २३७) किया है. यद्यपि आचार्य मलयगिरिने ज्योतिकरंडक-वृत्तिको पादलिप्ताचार्यनिर्मित बतलाया है किन्तु आज जैसलमेर और खंभातमें पंद्रहवीं शतीमें लिखी गई मूल और वृत्ति सहित मूलकी जो हस्तप्रतियां प्राप्त हैं उन्हें देखते हुए आचार्य मलयगिरिके कथनको कहाँ तक माना जाय, यह मैं तज्ज्ञ विद्वानों पर छोड़ देता हूँ. उपर्युक्त मूलग्रन्थ एवं मूलग्रन्थसहित वृत्तिके अंतमें जो उल्लेख हैं वे क्रमश: इस प्रकार हैं : कालण्णाणसमासो पुवायरिपहिं वण्णिमओ एसो । विणकरपण्णत्तीतो सिस्सजणहिओ सुहोपायो । पव्यायरियकयाणं करणाणं जोतिसम्मि समयस्मि । पालित्तकेण इणमो रहया गाहाहिं परिवाडी ॥ -ज्योतिष्करण्डक प्रान्त भाग, कालण्णाणसमासो पुवायरिपहिं नीणिमो एसो। विणकरपण्णत्तीतो सिस्सजणहिओ पिओ ......॥ पुवायरियकयाय नीतिसमसमपणं । पालित्तपण इणमो रइया गाहाहिं परिवाडी ॥ ॥ णमो अरहताण ॥ कालण्णाणस्तिणमो वित्ती णामेण चंद[ ? लेह ] ति । सिवनंदिवायगेहिं तु रोयिगा(रइया) जिणदेवगतिहेतूणं (? गणिहेतुं)॥ ॥० १५८०॥ -ज्योतिष्करण्डकवृत्ति प्रान्त भाग. इन दोनों उल्लेखोंसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि -- मूल ज्योतिष्करंडकप्रकीर्णकके प्रणेता पादलिप्ताचार्य हैं और उसकी वृत्ति, जिसका नाम 'चन्द्र[लेखा)' है, शिवनन्दी वाचककी रचना है. आचार्य मलयगिरिने तो सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ति एवं ज्योतिष्करंडक-वृत्तिमें इस वृत्तिके प्रणेता पादलितको कहा है. संभव है, आचार्य मलयगिरिके पास कोई अलग कुलकी प्रतियाँ आई हों जिनमें मूलसूत्र और Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ वृत्तिका आदि-अन्तिम भाग छूट गया हो. जैसलमेरके ताड़पत्रीय संग्रहको ज्योतिष्करंडक मूलसूत्रकी प्रतिमें इसका आदि और अन्तका भाग नहीं है. आचार्य मलयगिरिको ऐसे ही कुलकी कोई खंडित प्रति मिली होगी जिससे अनुसंधान करके उन्होंने अपनी वृत्तिकी रचना की होगी. इन आचार्यने 'शत्रुजयकल्प'की भी रचना की है. नागार्जुनयोगी इनका उपासक था. इसने इन्हीं आचार्यके नामसे शत्रुजयमहातीर्थकी तलहटीमें पादलितनगर पालीताणा] वसाया था, ऐसी अनुश्रुति जैन ग्रन्थों में पाई जाती है. (१२) आर्यरक्षित (वीर नि० ५८४में दिवंगत) --- स्थविर आर्य वज्रस्वामी इनके विद्यागुरु थे. ये जैन आगमों के अनुयोगका पृथक्त्व-भेद करनेवाले, नयों द्वारा होने वाली व्याख्याके आग्रहको शिथिल करनेवाले और अनुयोगद्वारसूत्रके प्रणेता थे. प्राचीन व्याख्यानपद्धतिको इन्होंने अनुयोगद्वारसूत्रकी रचना द्वारा शास्त्रबद्ध कर दिया है. ये श्री दुर्बलिकापुष्यमित्र, विन्ध्य आदिके दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु थे. यहाँ पर प्रसंगवश अनुयोगका पृथक्त्व क्या है, इसका निर्देश करना उचित होगा. अनुयोगका पृथक्त्व कहा जाता है कि प्राचीन युगमें जैन गीतार्थ स्थविर जैन आगमोंके प्रत्येक छोटे बड़े सूत्रोंकी वाचना शिष्यों को चार अनुयोगोंके मिश्रणसे दिया करते थे. उनका इस वाचना या व्याख्याका क्या ढंग था, यह कहना कठिन है फिर भी अनुमान होता है कि उस व्याख्या में - (१) चरणकरणानुयोग-जीवनके विशुद्ध आचार, :(२) धर्मकथानुयोग --- विशुद्ध आचारका पालन करनेवालोंको जीवन-कथा, (३) गणितानुयोग --- विशुद्ध आचारका पालन करनेवालोंके अनेक भूगोल-खगोलके स्थान और (४) द्रव्यानुयोग-विशुद्ध जीवन जीने वालोंको तात्त्विक जीवनचिन्ता क्या व किस प्रकारकी हो, इसका निरूपण रहता होगा और वे प्रत्येक सूत्रकी नय, प्रमाण व भंगजालसे व्याख्या कर उसके हार्दको कई प्रकारसे विस्तृत कर बताते होंगे. समयके प्रभावसे बुद्धिबल व स्मरणशक्तिकी हानि होनेपर क्रमश: इस प्रकारके व्याख्यानमें न्यूनता आतो ही गई जिसका साक्षात्कार स्थविर आर्य कालक द्वारा अपने प्रशिष्य सागरचन्द्रको दिये गये धूलिपुंजके उदाहरणसे हो जाता हैं. जैसे धूलिपुंजको एक जगह रखा जाय, फिर उसको उठाकर दूसरी जगह रखा जाय, इस प्रकार उसी धूलिपुंजको उठा-उठाकर दूसरी-दूसरी जगह पर रखा जाय. ऐसा करने पर शुरूका बड़ा धूलिपुंज अन्तमें चुटकीमें भी न आवे, ऐसा हो जाता है. इसी प्रकार जैन आगमोंका अनुयोग अर्थात् व्याख्यान कम होते-होते परम्परासे बहुत संक्षिप्त रह गया. ऐसी दशामें बुद्धिबल एवं स्मरणशक्तिकी हानिके कारण जब चतुरनुयोगका व्याख्यान दुर्घट प्रतीत हुआ तब स्थविर आर्यरक्षितने चतुरनुयोगके व्याख्यानके आग्रहको शिथिल कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने प्रत्येक सूत्रकी जो नयोंके आधारसे तार्किक विचारणा आवश्यक समझी जाती थी उसे भी वैकल्पिक कर दिया. श्रीआर्यरक्षितके शिष्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ર૭ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય प्रशिष्योका समुदाय संख्या में बड़ा था. उनमें जो विद्वान् शिष्य थे उन सबमें दुर्बलिकापुष्यमित्र अधिक बुद्धिमान् एवं स्मृतिशाली थे. वे कारणवशात् कुछ दिन तक स्वाध्याय न करनेके कारण ११ अंग, पूर्वशास्त्र आदिको और उनकी नयगर्मित चतुरनुयोगात्मक व्याख्याको विस्मृत करने लगे. इस निमित्तको पाकर स्थविर आर्य रक्षितने सोचा कि ऐसा बुद्धिस्मृतिसम्पन्न भी यदि इस अनुयोगको भूल जाता है तो दूसरेकी तो बात ही क्या ? ऐसा सोचकर उन्होंने चतुरनुयोगके स्थान पर सूत्रोंकी व्याख्यामें उनके मूल विषयको ध्यानमें रखकर किसी एक अनुयोगको हो प्राधान्य दिया और नयों द्वारा व्याख्या करना भी आवश्यक नहीं समझा. वक्ता व श्रोताकी अनुकुलताके अनुसार ही नयों द्वारा व्याख्या की जाय, ऐसी पद्धतिका प्रचलन किया. तदनुसार विद्यमान आगमोंके सूत्रों को उन्होंने चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दीया जिससे तत्-तत् सूत्रकी व्याख्या केवल एक ही अनुयोगका आश्रय लेकर हो. जैसे आचार, दशवकालिक आदि सूत्रो की व्याख्यामें केवल चरणकरणानुयोगका ही आश्रय लिया जाय, शेषका नहीं. इसी प्रकार सूत्रोंको कालिक-उत्कालिक विभागमें भी बांट दिया. (१३) कालिकाचार्य (वीर नि० ६०५के आसपास)-पंचकल्पमहाभाष्यके उल्लेखानुसार ये आचार्य शालिवाहनके समकालीन थे. इन्होंने जैनपरम्परागत कथाओंके संग्रहरूप प्रथमानुयोग नामक कथासंग्रहका पुनरुद्धार किया था. इसके अतिरिक्त गंडिकानुयोग और ज्योतिषशास्त्रविषयक लोकानुयोग नामक शास्त्रोका भी निर्माण किया था. जैन आगमग्रंथोंकी संग्रहणियों की रचना इन्हींकी है. जैन आगमों के प्रत्येक छोटे-छोटे विभागमें जिन-जिन विषयोंका समावेश होता था उनका बीजरूप संग्रहं इन संग्रहणी गाथाओंमें किया गया है. एक प्रकारसे इसे जैन आगमोंका विषयानुक्रम ही समझना चाहिए. आज यह संग्रह व्यवस्थितरूपमें देखनेमें नहीं आता है, तथापि संभव है कि भगवती, प्रज्ञापना, आवश्यक आदि सूत्रों की टीकाओंमें टीकाकार आचार्योने प्रत्येक शतक, अध्ययन, प्रतिपत्ति, पद आदिके प्रारम्भमें जो संग्रहणी गाथाएँ दी हैं वे यही संग्रहणी-गाथाएँ हों. (१४) गुणधर (वीर नि० ६१४-६८३के बीच)- दिगम्बर आम्नायमें आगमरूपसे मान्य कसायपाहुडके कर्ता गुणधर आचार्य हैं. उनके समयका निश्चय यथार्थरूपमें करना कठिन है. पं० हीरालाल जीका अनुमान है कि ये आचार्य धरसेनसे भी पहले हुए हैं. (१५) आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त व भूतबलि (वीर नि० ६१४-६८३के बीच ?)दिगम्बर आम्नायमें षट्खंडागमके नामसे जो सिद्धान्तग्रन्थ मान्य हैं उसका श्रेय इन तीनों आचार्योको हैं. जिस प्रकार भद्रबाहुने चौदहपूर्वका ज्ञान स्थूलभद्र को दिया उसी प्रकार आचार्य धरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुतका लोप न हो, इस दृष्टिसे सिद्धान्त पढ़ाया जिसके आधार पर दोनोंने षदखण्डागमकी रचना की. इनका समय वीरनिर्वाण ६१४ व ६८३के बीच है, ऐसी संभावना की गई है. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ (१६, १७) आर्य मंक्षु और नागहस्ति- कषायपाहुडकी परम्पराको सुरक्षित रखनेका विशेष कार्य इन आचार्योंने किया और इन्हींके पास अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभने कसायपाहुडकी चूर्णिकी रचना की थी. इन आचार्योंको नंदीसूत्रकी पट्टावलीमें भी स्थान मिला है. नंदीसूत्रकारने आर्य मंगु और नागहस्तिका वर्णन इस प्रकार किया है : भणगं करगं झरगं पभावगं णाण-दसण-गुणार्ण । वंदामि अज्जमंगुं सुयसागरपारगं धीरं ॥२८॥ णाणम्मि दसणम्मि य तव-विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अजाणदिलखमणं सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥२९॥ वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अजणागहत्थीणं । वागरण-करण-भंगिय कम्मप्पगडीपहाणाणं ॥३०॥ नंदीसूत्रके आर्य मंगु ही आर्य मंक्षु हैं, ऐसा निर्णय किया गया है. इससे विद्वानों का ध्यान इस और जाना आवश्यक है कि आज भले ही कुछ ग्रंथों को हम केवल श्वेताम्बरोंके ही माने और कुछको केवल दिगम्बरोंके किन्तु वस्तुतः एक काल ऐसा था जब शास्त्रकार और शास्त्रका ऐसा साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ था. आर्य मक्षुके विषयमें एक खास बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके कुछ विशेष मन्तव्यों के विषयमें जयधवलाकारका कहना है कि ये परम्पराके अनुकूल नहीं (षट्खंडागम भा० ३ भूमिका पृष्ठ १५). (१८) आचार्य शिवशर्म (वीर नि० ८२५से पूर्व)- जैन धर्मकी अनेक विशेषताओंमें एक विशेषता है उसके कर्मसिद्धान्तकी. जिस प्रकार षट्खण्डागम और कसायपाहुड विशेषतः कर्मसिद्धान्तके ही निरूपक हैं उसी प्रकार शिवशर्मकी कम्मपयडी और शतक कर्मसिद्धान्तके ही निरूपक प्राचीन ग्रंथ हैं. इनका समय भाष्य-चूर्णिकालके पहले का अवश्य है. (१९,२०) स्कन्दिलाचार्य व नागार्जुनाचार्य (वीर नि० ८२७से ८४०)- ये स्थविर क्रमशः माथुरी या स्कान्दिलौ और वालभी या नागार्जुनी वाचनाके प्रवर्तक थे. दोनों ही समकालीन स्थविर आचार्य थे. इनके युगमें भयंकर दुर्भिक्ष उपस्थित होने के कारण जैन श्रमणोंको इधर-उधर विप्रकीर्ण छोटे-छोटे समूहोंमें रहना पड़ा. श्रुतधर स्थविरोंकी विप्रकृष्टता एवं भिक्षाकी दुर्लभताके कारण जैनश्रमणोंका अध्ययन-स्वाध्यायादि भी कम हो गया. अनेक श्रुतधर स्थविरोंका इस दुर्भिक्षमें देहावसान हो जानेके कारण जैनआगमोंका बहुत अंश नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-भिन्न एवं अस्त-व्यस्त हो गया. दुर्भिक्षके अन्तमें ये दोनों स्थविर, जो कि मुख्य रूपसे श्रुतधर थे, बच रहे थे किन्तु एक-दूसरेसे बहुत दूर थे. आर्य स्कन्दिल मथुराके आस-पास थे और आर्य नागार्जुन सौराष्ट्रमें. दुर्भिक्षके अन्तमें Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય इन दोनों स्थविरोंने वी० सं० ८२७से ८४० के बीच किसी वर्षमें क्रमशः मथुरा व वलभीमें संघसमवाय एकत्र करके जैनागमोंको जिस रूपमें याद था उस रूपमें ग्रन्थरूपसे लिख लिया. दोनों स्थविर वृद्ध होने के कारण परस्पर मिल न सके. इसका परिणाम यह हुआ कि दोनोंके शिष्यप्रशिष्यादि अपनी-अपनी परम्पराके आगमोको अपनाते रहे और उनका अध्ययन करते रहे. यह स्थिति लगभग़ देढ़ सौ वर्ष तक रही. इस समय तक कोई ऐसा प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति नहीं हुआ जो आगमोंके इस पाठभेदका समन्वय कर पाता. इसी कारण आगमोंका व्यवस्थित लेखन आदि भी नहीं हो सका. जो कुछ भी हो आज जो जैनागम विद्यमान हैं वे इन दोनों स्थविरों की देन हैं. (२१) स्थविर आर्य गोविन्द (वीर नि० ८५०से पूर्व)-ये पहले बौद्ध आचार्य थे और बादमें इन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया था. इन्होंने गोविन्दनियुक्ति की रचना की थी जिसमें पृथ्वी, पानी, अग्नि आदिकी सजीवताका निरूपण किया गया है. यह नियुक्ति किस आगमको लक्ष्य करके रची गई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता. फिर भी अनुमान होता है कि यह आचारांगसूत्रके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा अथवा दशवैकालिक सूत्रके चतुर्थ अध्ययन छ जीवगियाको लक्ष्य करके रची गई होगी. आज इस नियुक्तिका कहीं पर भी पता नहीं मिलता है. आचार्य गोविंदके नामका उल्लेख दशवैकालिकसूत्रके चतुर्थ अध्ययनकी वृत्तिमें आचार्य हरिभद्रने भाष्यगाथाके नामसे जो गाथाएं उद्धृत कर व्याख्या की है उसमें " गोविंदवायगो विय जह परपक्वं नियत्तेइ" (पत्र० ५३,१ गा० ८२) इस प्रकार उल्लेख आता है. आचार्य हरिभद्र · गोविंदवायग' इस प्राकृत नामका संस्कृतमें परिवर्तन 'गोपेन्द्र वाचक' नामसे करते हैं. आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपने योगबिन्दु ग्रन्थमें गोपेन्द्रके नामसे जो अवतरण दिये हैं, वे संभव है कि इन्हीं गोपेन्द्र वाचकके हो. जैनआगमोंके भाष्यमें इन गोविन्द स्थविरका उल्लेख ' ज्ञानस्तेन 'के रूपमें किया गया है. इसका कारण यह है कि ये पहले जैनाचार्योकी युक्ति-प्रयुक्तियों को जानकर उनका खण्डन करनेकी दृष्टि से ही दीक्षित हुए थे, किन्तु बादमें उनके हृदयको जैनाचार्योकी युक्ति-प्रयुक्तियोंने जीत लिया जिससे वे फिरसे दीक्षित हुए और महान् अनुयोगधर हुए. नंदीसूत्रकी प्रारंभिक स्थविरावलीमें इनका परिचय प्रक्षिप्तगाथाके द्वारा इस प्रकार दिया है: गोविंदाणं पि णमो अणुओगे विउलधारणिंदाणं । निच्चं खंति-दयाणं परूवणादुल्लभिदाणं ॥ (२२, २३) देवद्धिंगणि व गन्धर्व वादिवेताल शांतिसरि (वीर नि० ९९३)देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण माथुरी वाचनानुयायी प्रतिभासम्पन्न समर्थ आचार्य थे. इन्हींकी अध्यक्षतामें वलभीमें माथुरी एवं नागार्जुनी वाचनाओके वाचनाभेदोंका समन्वय करके जैनआगम व्यवस्थित किये गये और लिखे भी गये. गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि वालभी वाचनानुयायी मान्य स्थविर थे. इनके विषयमें - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 1 वालब्भ संघकज्जे उजमियं जुगपद्दाणतुल्लेहिं । गंधवाहवे याल संतिसूरीहिं वलहीप ॥ इस प्रकारका प्राचीन उल्लेख भी पाया जाता है. इस गाथामें 'बलभीमें वालभ्यसंघके कार्य के लिए गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरिने प्रयत्न किया था ऐसा जो उल्लेख है वह वालभ्यसंघ कार्य वालभीवाचनाको लक्ष्य करके ही अधिक संभवित है. अन्यथा 'बालब्भसंघकज्जे ' ऐसा उल्लेख न होकर ' संघकज्जे' इतना ही उल्लेख काफी होता. इस उल्लेखसे प्रतीत होता है कि श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणको माधुरी वालमी वाचनाओंको व्यवस्थापित करनेमें इनका प्रमुख साहाय्य रहा होगा. दिगम्बराचार्य देवसेनकृत दर्शनसारनामक ग्रन्थ में श्वेताम्बरो की उत्पत्तिके वर्णनप्रसंग में જ્ઞાનાંજલિ छत्तीसे वरिससर विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरडे उत्पण्णो सेवडसंघो हु वलहीए ॥५२॥ पक्क पुण संतिणामो संपत्तो वलहिणामणयरीए । बहुसी संपत्तो विसर सोप रमे ॥५३॥ इस प्रकारका उल्लेख है. यद्यपि इस उल्लेखमें दिया हुआ संवत् मिलता नहीं है तथापि उपर्युक्त 'वाल भसंघकज्जे' गाथा में निर्दिष्ट वालभ्यसंघकार्य, शांतिसूरि, वलभि, आदि उल्लेखके साथ तुलना करने के लिये दर्शनसारका यह उल्लेख जरूर उपयुक्त है. देवर्द्धिगमि जो स्वयं माथुरसंघ के युगप्रधान थे, उनकी अध्यक्षता में वलभीनगर में एकत्रित संघसमवायमें दोनों वाचनाओंके श्रुतघर स्थविरादि विद्यमान थे. इस संघसमवाय में सर्वसम्मति माथुरी वाचनाको प्रमुख स्थान दिया गया होगा. इसका कारण यह हो सकता है कि माधुरीवाचनाके जैन आगमोंकी व्यवस्थितता एवं परिमाणाधिकता थी. इसमें ज्योतिष्करंडक जैसे प्रन्थोंको भी स्थान दिया गया जो केवल वालभी वाचनामें ही थे. इतना ही नहीं अपितु माथुरी वाचनासे भिन्न एवं अतिरिक्त जो सूत्रपाठ एवं व्याख्यान्तर थे उन सबका उल्लेख नागार्जुनाचार्य के नामसे तत्तत् स्थान पर किया भी गया. आचारांग आदिकी चूर्णिओंमें ऐसे उल्लेख पाये जाते हैं. समझमें नहीं आता कि जिस समय जैन आगमों को पुस्तकारूढ किया होगा उस समय इन वाचनान्तरों का संग्रह किस ढंग से कीया होगा ?, जैन आगम की कोई ऐसी हस्तप्रति मौजूद नहीं है जिसमें इन वाचनाभेदों का संग्रह या उल्लेख हो. आज हमारे सामने इस वाचनाभेदको जाननेका साधन प्राचीन चूर्णिग्रन्थोके अलावा अन्य एक भी ग्रन्थ नहीं है. चूर्णियाँ भी सब आगमोंकी नहीं किन्तु केवल आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निशीथ, कल्प, पंचकल्प, व्यवहार एवं दशाश्रुतस्कन्धकी ही मिलती हैं. ऊपर जिन आगमोंकी चूर्णियोंके नाम दिये गये हैं उनमें से नागार्जुनीय - वाचनाभेदका उल्लेख केवल आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन व दशवैकालिककी चूर्णियों में ही मिलता है. अन्य आगमों में Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આચમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય [31 नागार्जुनीय वाचनाकी अपेक्षा न्यूनाधिक्य या व्याख्याभेद क्या था, इसका आज कोई पता नहीं लगता. बहुत संभव है, ये वाचनाभेद चूर्णि-वृत्ति आदि व्याख्याओंके निर्माणके बादमें सिर्फ पाठभेदके रूपमें परिणत हो गये हो. यही कारण है कि चूर्णिकार और वृत्तिकारों की व्यवस्थामें पाठोंका कभी-कभी बहुत अन्तर दिखाई देता है. (१) दशवैकालिकसूत्रकी अनामकर्तृक मुद्रितचूर्णिके पृष्ठ २०४ में “ नागज्जुणिया तु एवं पढंति-एवं तु गुगप्पेही अगुणाऽणविवजए " इस प्रकार एक ही नागार्जुनीय वाचनाका उल्लेख पाया गया है. यह उल्लेख पाठभेदमूलक नहीं अपितु व्याख्याभेदमूलक है. माथुरी वाचता वाले "अगुणाण विवज्जए-अगुणानां विवर्जकः" ऐसी सीधी व्याख्या करते हैं, जबकि नागार्जुनीय वाचना वाले " अगुगाऽगविवज्जए-अगुणरिणं अकुव्वंतो" अर्थात् 'अगुणरूप ऋण नहीं करते' ऐसी व्याख्या करते हैं. इस चूर्णिमें नागार्जुनीय नामका यह एक ही उल्लेख देखनेमें आया है. इसी दशवकालिकसूत्रकी स्थविर अगस्त्यसिंहकृत एक अन्य प्राचीन चूर्णि पाई गई है जो अभी प्राकृत टेक्स्ट-सोसायटी की ओर से छप रही है. इसमें (पृ. १३६) इस स्थान पर उपर्युक्त वाचनाभेदका उल्लेख किया है किन्तु नागार्जुनीय नामका उल्लेख नहीं है. इससे भी यही प्रतीत होता है कि नागार्जुनीय पाठभेदादि केवल पाठान्तर व मतान्तरके रूप में ही रह गये हैं. प्राचीन वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र भी अपनी वृत्तिमें कहीं पर भी नागार्जुनीय वाचनाका नामोल्लेख करते नहीं हैं. (२) आचारांगसूत्रको चूर्णिमें नार्गार्जुनीयवाचनाभेदका उल्लेख पंद्रह जगह पाया जाता है१. भदन्त नागार्जुनीयास्तु पढंति पृ० ६२ वृत्तिपत्र ११८ २. णागज्जुणिया पढंति ३. भदंतणागजुणिया तु पढंति ११३ ४. भदंतणागज्जुणिया १२० १६६ पृ० २ ५. भदंतणागज्जुणिया पढंति __ पृ० १३९ वृत्तिपत्र १८३ पृ० २ ६. एत्थ सक्खी भदन्तनागार्जुनाः १९८ पृ० २ ७. नागार्जुनीयास्तु ___, २०१ पृ० १. ८. णागज्जुणीया , २३९ पृ० १ ९. भदन्त णागज्जुणा तु , २४५ पृ० १ १०. णागज्जुणिया उ , २१९ ११. णागज्जुणा , २३२ वृत्तिपत्र २५३ पृ० २. १२. णागज्जुणा तु , २३७ , २५६ पृ० १ १३. णागजुणा २८७ २०७ २१९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] १४. णागज्जुणा तु पदंति १५. भदन्तनागार्जुनीयास्तु 99 59 ३०२ वृत्तिपत्र ३०३ ३१३ यहां पर आचारांगचूर्णि और शीलांकाचार्य रचित वृत्तिके जो पृष्ठ-पत्रांक आदि दिये गये हैं वे आगमोद्धारक पूज्य आचार्य श्री सागरानन्दसूरि सम्पादित आवृत्तिके हैं. જ્ઞાનાંજલ पृ० १ उपर्युक्त पंद्रह उल्लेखों में से पांच उल्लेख शीलांकीय वृत्तिमें नहीं हैं. बाकीके दस उल्लेख शीलांकाचार्यने दिये हैं. वे सभी उल्लेख आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूर्णि वृत्ति में ही हैं. द्वितीय श्रुतस्कन्धकी चूर्णि-वृत्तिमें नागार्जुनीय - वाचना का कोई उल्लेख नहीं है. यहां आचारांग-चूर्णिमें से नागार्जुनीयवाचनाके जो पंद्रह उल्लेख उद्धृत किये गये हैं उनमें सात जगह अति पूज्यतासूचक 'भदन्त विशेषणका प्रयोग किया है जो अन्य किसी चूर्णि-वृत्ति आदिमें नहीं है. इससे अनुमान होता है कि इस चूर्णिके प्रणेता, जिनके नामका उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता, कम-से-कम नागार्जुनीय परंपराके प्रति आदर रखने वाले थे. (३) सूत्रकृतांगकी चूर्णिमें नागार्जुनीय वाचनाके जो उल्लेख मिलते हैं उन सभी स्थानों पर 'नागार्जुनीयास्तु' ऐसा लिखकर ही नागार्जुनीय वाचनाभेदका उल्लेख किया गया है जो प्रथम श्रुतस्कन्धमें चार जगह व दूसरे श्रुतस्कन्धमें नौ जगह पाया गया है. आचार्य शीलांकने अपनी वृत्ति में ' नागार्जुनीयास्तु पठन्ति ' लिखकर नागार्जुनीय वाचनाका : उल्लेख चार जगह किया है. संभव है पिछले जमाने में नागार्जुनीय वाचनाभेदका कोई खास महत्त्व रहा न होगा. प्रसंगवशात् एक बात की सूचना करना हम यहाँ उचित समझते हैं कि सूत्रकृतांगचूर्णिकार 'अणुत्तरणाणी - अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरो, एतेण एकत्वं णाण-दंसणाणं ख्यापितं भवति ' [ श्रुत १ अध्य० २. उ० २ गा० २२] इस उल्लेखसे एकोपयोगवादी आचार्य सिद्धसेन के अनुयायी मालूम होते हैं. (४) उत्तराध्ययनसूत्रकी चूर्णिमें चूर्णिकार आचार्यने पाँच स्थानों पर नागार्जुनीय वाचनाभेदका उल्लेख किया है. पाइय-टीकाकार वादिवेताल शान्तिसूरिजीने भी इन पाँच स्थानों पर नागार्जुनीय वाचनाभेदका उल्लेख किया है. किन्तु सिर्फ एक स्थान पर नागार्जुनीयका नाम न लेकर ' पठ्यते च ' ऐसा लिखकर नागार्जुनीय वाचनाभेदका उल्लेख किया है. [पत्र २६४ - १]. कुछ विद्वान् स्थविर आर्य देवर्द्धिगणिके आगम-व्यवस्थापन व आगम-लेखनको बालभी वाचनारूपसे बतलाते हैं, किंतु ऊपर वालमी वाचनाके विषयमें जो कुछ कहा गया है उससे उनका यह कथन भ्रान्त सिद्ध होता है. वास्तवमें वालभी वाचना वही है जो माथुरीवाचनाके ही समय में स्थविर आर्य नागार्जुनने वलभीनगर में संघसमवाय एकत्र कर जैन आगमोंका संकलन किया था. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [ 3 स्थविर आर्य देवद्धिंगणिने वलभीमें संघसमवायको एकत्रित कर जैन आगमोंको व्यवस्थित किया व लिखवाया. उस समय लेखनको प्रारम्भिक प्रवृत्ति किस रूपमें हुई इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता. सामान्यतया मुखोपमुख कहा जाता है कि वलभीमें हजारों की संख्यामें ग्रंथ लिखे गये थे, किन्तु हमारे सामने शीलांकाचार्य, नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि आदि व्याख्याकार आचायोंके जो विषादपूर्ण उल्लेख विद्यमान हैं उनसे तो यह माना नहीं जा सकता कि इतने प्रमाणमें ग्रंथलेखन हुआ होगा. श्रीशीलांकाचार्यने सूत्रकृतांगकी अपनी वृत्तिमें इस प्रकार लिखा है : " इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिर्विवरणं क्रियत इति, एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाचितव्यामोहो न विधेय इति ।" । [मुद्रित पत्र ३३६-१] अर्थात् चूर्णिसंमत मूलसूत्रके साथ तुलना की जाय ऐसी एक भी मूलसूत्र की हस्तप्रत आचार्य शीलांकको नहीं मिली थी. श्री अभयदेवाचार्यने भी स्थानांग, समवायांग व प्रश्नव्याकरण -- इन तीनों अंग-आगमों की वृत्तिके प्रारम्भ एवं अन्तमें इमी आशयका उल्लेख किया है, जो क्रमशः इस प्रकार है: १. वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्याद मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥२॥ २. यस्य ग्रंथवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो! चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैश्चुलुकाकृति विदधतः कालादिदोषात् तथा, दुर्लेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः ? ॥२॥ ३. अक्षा वयं शास्त्रमिदं गभीरं, प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि । सूत्रं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित पच नैव ॥२॥ ऊपर उदाहरणके रूपमें श्री शीलांकाचार्य व श्री अभयदेवाचार्यके जो उल्लेख दिये हैं उनसे प्रतीत होता है कि वलभीमें स्थविर आर्य देवर्द्धिगणि, गंधर्ववादिवेताल शान्तिसूरि आदिके प्रयत्नसे जो जैन आगमोका संकलन एवं व्यवस्थापन हुआ और उन्हें पुस्तकारूढ़ किया गया, यह कार्य जैन स्थविर श्रमणोंकी जैन आगमादिको ग्रंथारूढ़ करने की अल्प रुचिके कारण बहुत संक्षिप्त रूपमें ही हुआ होगा तथा निकट भविष्यमें हुए वलभीके भंगके साथ ही वह व्यवस्थित किया हुआ आगमोका लिखित छोटा-सा ग्रंथसंग्रह नष्ट हो गया होगा। परिणाम यह हुआ कि आखिर जो स्थविर मार्य स्क्रन्दिल एवं स्थविर आर्य नागार्जुनके समयकी हस्तप्रतियां होंगी, उन्हींकी शरण व्याख्याकारोंको लेनी पड़ी होगी. यही कारण है कि प्राचीन चूर्णियां एवं व्याख्याग्रंथोंमें सैकड़ों पाठभेद उल्लिखित Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] જ્ઞાનાંજલિ पाये जाते हैं जिसका उदाहरणके रूपमें मैं यहां संक्षेपमें उल्लेख करता हूँ : आचारांगसूत्रको चूर्णिमें चूर्णिकारने नागार्जुनीय वाचनाके उल्लेखके अलावा 'पढिज्जइ य' ऐसा लिवकर उन्नीस स्थानों पर पाठभेदका उल्लेख किया है. आचार्य श्री शीलांकने भी अपनी वृत्तिमें उपलब्ध हस्तप्रतियोंके अनुसार कितने ही सूत्रपाठभेद दिये हैं. इसी प्रकार सूत्रकृतांगचूर्णिमें भी नागार्जुनीय वाचनाभेदके अलावा 'पठ्यते च, पठ्यते चान्यथा सद्भिः, अधवा, अथवा इह तु, मूलपाठस्तु, पाठविशेषस्तु, अन्यथा पाठस्तु, अयमररकल्पः, पाठान्तरम्' आदि वाक्योंका उल्लेख कर केवल प्रथम श्रुतस्कन्धकी चूर्णिमें ही लगभग सवा सौ जगह जिन्हें वास्तविक पाठभेद माने जाय ऐसे उल्लेखोंकी गाथाकी गाथाएं, पूर्वार्धके पूर्वार्ध व चरणके चरण पाये जाते हैं. द्वितीय श्रुतस्कन्धके पाठभेद तो इसमें शामिल ही नहीं किये गये हैं. आचार्य शीलांकने भी बहुतसे पाठभेद दिये हैं, फिर भी चूर्णिकारको अपेक्षा ये बहुत कम हैं, यहां पर एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि खुद आचार्य शीलांकने स्वीकार किया है कि 'हमें चूर्णिकारस्वीकृत आदर्श मिला ही नहीं.' यही कारण है कि उनको टीकामें चूर्णिकी अपेक्षा मूल सूत्रपाठ एवं व्याख्यामें बहुत अन्तर पड़ गया है. इसके साथ मेरा यह भी कथन है कि आज हमारे सामने जो प्राचीन सूत्रप्रतियां विद्यमान हैं उनके पाठभेदोंका संग्रह किया जाय तो सीमातीत पाठभेद मिलेंगे. इनमें अगर भाषाप्रयोगके पाठभेदोंको शामिल किया जाय तो, मैं समझता हूँ कि, पाठभेदोंका संग्रह करने वालेका दम निकल जाय. फिर भी यह कार्य कम महत्त्वका नहीं है. प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीकी ओरसे जो आगमोंका सम्पादन किया जा रहा है उसमें इस प्रकारकी महत्त्वपूर्ण सब बातोंको समाविष्ट करनेका यथासंभव पूरा ध्यान रखा जाता है. दशवकालिकसूत्र पर स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि, अज्ञातनामकर्तृक दूसरी चूर्णि और आचार्य हरिभद्रकृत शिष्यहितावृत्ति – ये तीन व्याख्याग्रंथ मौलिक व्याख्यारूप हैं. इनके अलावा जो अन्य वृत्तियां विद्यमान हैं उन सबका मूल स्रोत आचार्य हरिभद्रकी बृहदवृत्ति ही है. आचार्य हरिभद्रने अपनी वृत्तिमें “ तत्रापि 'कत्यहं, कदाऽहं, कथमहं' इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्य व्याख्यायते" (पत्र ८५-१) ऐसा कह कर पाठभेदोंकी झंझटसे छुटकारा ही पा लिया. अनामकर्तृक चूर्णि, जिसका उल्लेख आचार्य हरिभद्र अपनी वृत्तिमें वृद्ध-विवरणके नामसे करते हैं, उसमें कहीं-कहीं पाठभेदोंका उल्लेख होने पर भी उनका कोई खास संग्रह नहीं है. किन्तु स्थविर अगस्त्यसिंहविरचित चूर्णिमें सूत्रपाठोंका न्यूनाधिक्य, पाठभेद, व्याख्याभेद आदिका संग्रह काफी मात्रामें किया गया है. मूलसूत्रकी भाषाका स्वरूप भी वृद्धविवरण एवं आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिकी अपेक्षा बहुत ही भिन्न है. वृद्धविवरेण व आचार्य हरिभद्रकी वृत्तिमें मूलसूत्रकी भाषाका स्वरूप आजकी प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियोंमें जैसा पाया जाता है, करीब-करीब उससे मिलता-जुलता ही है. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [३५ ___ यहाँ पर प्राचीन चूर्णियों एवं उनमें प्राप्त होनेवाले पाठभेदादिका उल्लेख कर आपका जो समय लिया है उसका कारण यह है कि चलभी नगर में स्थविर आर्य देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण प्रमुख जैन संघने जो जैन आगमों का व्यवस्थापन किया था और इन्हें ग्रंथारूढ किया था वह यदि विस्तृत रूपमें होता तो वालभी ग्रंथलेखनके निकट भविष्यमें होनेवाले चूर्णिकार, आचार्य हरिभद्र, आचार्य शीलांक, श्री अभयदेवसूरि आदिको विकृतातिविकृत आदर्श न मिलते. जसे आज हमें चार सौ, पाँच सौ, यावत् हजार वर्ष पुरानी शुद्धप्रायः हस्तप्रतियां मिल जाती हैं उसी प्रकार चूर्णिकार आदिको भी वलभीव्यवस्थापित शुद्ध एवं प्रामाणिक पाठ वाले आदर्श अवश्य ही मिलते, किन्तु वैसा नहीं हुआ. इसके लिये उन्होंने विषाद ही प्रकट किया है. अतः मुझे यही लगता है कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणका ग्रंथलेखन बहुत संक्षिप्त रूपमें हुआ होगा, जो वलभीके भंगके साथ ही नष्ट हो गया. (२४) भदियायरिय – सूत्रकृतांगचूर्णि, पत्र ४०५ के " अत्र दूषगगिक्षमाश्रमणशिष्यभदियाचार्या ब्रुवते" इस उल्लेख के अनुसार भदियाचार्य स्थविर दूषगणिके शिष्य थे. इनके नामका उल्लेख एवं मतका संग्रह अगस्त्यसिंहविरचित दशवैकालि कचूर्णि पत्र ३ और अनामकर्तृक दशवैकालिकचूर्णि पत्र ४ में भी पाया जाता है. (२५) दत्तिलायरिय --- इनके नामका निर्देश एवं मतका संग्रह उपर्युक्त दोनों दशवैकालिकचूर्णियोंके क्रमशः ३ व ४ पत्रमें है. अज्ञातकर्तृक दशवैकालिकचूर्णिमें भदियायरिय एवं दत्तिलायरिय – इन दोनों स्थविरोंके नामों का उल्लेख व इनके मतका संग्रह सामान्यतया किया गया है, जब कि अगस्त्यसिंहविरचित चूर्णिमें " इह कयरेण एक्केण अहिकारो? सव्वण्णुभासिए का एक्कोयमयवियारणा ? तहा वि वखाणभेदपदरिसणत्थं क्रित्तिनिमित्तं गुरूणं भण्णति - भदियायरिओवएसेणं भिन्नरूवा एका दससदेण संगिहीया भवंति त्ति संगहेककेण अहिकारो, दत्तिलायरिओवएसेण सुयनाणं खओवसमिए भावे वति त्ति भावेककेण अहिगारो" इस प्रकार है. इस तरह इन दोनों स्थविरोंके नामका उल्लेख 'कित्तिनिमित्तं गुरूणं' इस वाक्यसे बड़े आदरके साथ किया है. सम्भव है, चूर्णिकारका इन स्थविरोके साथ अनुयोगविषयक कोई खास घनिष्ठ सम्बन्ध होगा. (२६) गंधहस्ती-आचार्य शीलांकके आचारींगसूत्रकी वृत्तिके प्रारम्भमें "शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम्" इस उल्लेखसे गन्धहस्ति आचार्यको आचारांगसूत्रके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञाका विवरणकार बताया है. हिमवंतस्थविरावलिमें आचार्य गन्धहस्तिके विषयमें इस प्रकारका निर्देश है____ "तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽयंस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वस्थविरोत्तं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3] જ્ઞાનાંજલિ सोमास्वातिवाचकविरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चार्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैविवरणानि रचितानि । यदुक्तं तदचिताऽऽचारागविवरणान्ते थेरस्स महु मित्तस्स सेहेहिं तिपुचनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविदिएहि वधगयरागाइदोसेहिं ॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गन्धहत्थिविबुहेहिं ।। विवरणमेयं रहयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥" हिमवंतस्थविरावलिके इस अंशमें आचार्य गन्धहस्तिको तत्त्वार्थगन्धहस्तिमहाभाष्यके प्रणेता एवं ग्यारह जैन अंग आगमोंके विवरणकार बतलाया है, जबकि आचार्य शलांकने इन्हें केवल आचाराङ्गके प्रथम अध्ययनके रचयिता ही कहा है. दूसरी बात यह है कि इनकी ग्यारह अंगकी वृत्तियोंके उद्धरण या नामोल्लेख भाष्य-चूर्णि-वृत्तियोंमें कहीं भी दिखाई नहीं देते. ऐसी स्थितिमें पट्टावलिके इस उल्लेखको कहां तक माना जाय, यह एक प्रश्न है. यहां पर गन्वहस्ती, यह विशेषनाम है, विशेषण नहीं. शीलांकाचार्यनिर्दिष्ट गन्धहस्ती हिमवंतस्थविरावलिनिर्दिष्ट गन्धहस्ती ही हैं या अन्य, इसका निर्णय करना कठिन है. स्थविरावलिमें जो आचारांगविवरणकी अंतिम प्रशस्तिका उद्धरण दिया गया है वह कहां तक ठीक है, यह कहना भी जरा कठिन है. इस विशेषनामके साथ रहे हुए गौरवको देखकर ही बादमें इस नामका उपयोग विशेषणके रूपमें होने लगा. तत्त्वार्थसूत्रवृत्तिके प्रणेता सिद्धसेनाचार्य ‘गन्धहस्ति' कहे जाते थे. ये हिमवंतस्थविरावलि द्वारा निर्दिष्ट गन्धहस्तीसे अन्य ही हैं। क्योंकि इनका समय विक्रम आठवीं शतीके बादका है, जब कि स्थविरावलिनिर्दिष्ट गन्धहस्तिका समय विक्रम २०० है. श्री यशोविजयजी उपाध्यायने अपनी गुरुतत्त्वविनिश्चयकी स्वोपज्ञ वृत्तिमें सन्मतितर्कके प्रणेता सिद्धसेनाचार्यको भी 'गन्धहस्ती' लिखा है. (२७-२८) मित्तवायग-खमासमण व साधुरक्षितगणि क्षमाश्रमण - इन दोनों स्थविरोंकी मान्यता एवं नामका उल्लेख व्यवहारभाष्य गा० ४९२की चूर्णिमें चूर्णिकारने किया है. (२९) धम्मगणि खमासमण-इन क्षमाश्रमणके मंतव्यका उल्लेख कल्पविशेषचूर्णिमें " अहवा धम्मगणिखमासमणादेसेणं सव्वेसु वि पदेसु इमा सोही-थेराईसुं अहवा० गाहाद्वयम्" इस प्रकार है. (३०) अगस्त्यसिंह (भाष्यकारोंके पूर्व)- ये स्थविर आर्य वज्रकी शाखामें हुए हैं. इन्होंने दशवकालिकसूत्र पर चूर्णिकी रचना की है. यह चूर्णि दशवैकालिकसूत्रके विविध पाठभेद एवं भाषाको दृष्टि से बहुत महत्त्वकी है. इस चूर्णिमें भाष्यकारकी गाथाओंका उल्लेख न होनेसे इनकी रचना भाष्यकारोंके पूर्वकी प्रतीत होती है. इसमें कई उल्लेख ऐसे भी हैं जो चालू साम्प्रदायिक प्रणालीसे भिन्न प्रकारके हैं. आचार्य श्री हरिभद्रने अपनी वृत्तिमें कहीं भी इस चूर्णिका उल्लेख नहीं किया है, इसका कारण यही प्रतीत होता है. विद्वानोंकी भी ज्ञातियां होती हैं. इसमें कल्किविषयक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાય [39 जो मान्यता चलती है और जिसका विस्तृत वर्णन तित्थोगालियपइण्णयमें पाया भी जाता है, इस विषयमें “ अणागतमढे ण णिद्धारेज-जधा ककी अमुको वा एवंगुणो राया भविस्सइ" ऐसा लिखकर कल्किविषयक मान्यताको आदर नहीं दिया है. इस चूर्णिमें “ भणितं च वररुचिणा-अंबं फलाणं मम दालिमं पियं' [पृ० १७३] इस प्रकार वररुचिके कोई प्राकृत ग्रंथका उद्धरण मिल सकता है. वररुचिका यह प्राकृत उद्धरण प्राकृतव्याकरणप्रणेता वररुचिके समयनिर्णयके लिए उपयुक्त होनेकी सम्भावना है. इस चूर्णिकी प्रति जैसलमेरके जिनभद्रीय ज्ञानभण्डारमें सुरक्षित है. इसका प्रकाशन प्राकृत टेकस्ट सोसायटोकी ओरसे मेरे द्वारा सम्पादित हो कर शीघ्र ही प्रकाशित होगा. (३१) संघदासगणि क्षमाश्रमण (वि० ५वीं शताब्दी)-ये आचार्य वसुदेवहिंडी - प्रथम खण्डके प्रणेता संघदासगणि वाचकसे भिन्न हैं एवं इनके बाद के भी हैं. इन्होंने कल्पलघुभाष्य और पंचकल्पमहाभाष्यकी रचना की है. वे महाभाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके पूर्ववर्ती हैं. (३२) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (वि० की छठी शती)- ये सैद्धान्तिक आचार्य थे. इनकी महाभाष्यकार एवं भाष्यकारके रूपमें प्रसिद्धि है. दार्शनिक-गम्भीरचिन्तनपरिपूर्ण विशेषावश्यक महाभाष्यको रचनाने इन्हें बहुत प्रसिद्ध किया है. केवलज्ञान और केवलदर्शन विषयक युगपदुपयोगद्वयवाद एवं अभेदवादको माननेवाले तार्किक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादीके मतका इन्होंने उपर्युक्त भाष्य एवं विशेषणवत। ग्रन्थमें निरसन किया है. जीत कल्पसूत्र, बृहत्संग्रहगी, बृहत्क्षेत्रसमास, अनुयोगद्वारचूर्णिगत अंगुलपदचूर्णि और विशेषावश्यक-स्वोपज्ञवृत्ति-षष्ठगणधरवाद व्याख्यानपर्यन्त--इनके इतने ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं. (३३) कोट्टायवादिगणी क्षमाश्रमण (वि० ५४०के बाद)- इन आचार्यने जिनभद्रगणिकी स्वोपज्ञ वृत्तिकी अपूर्ण रचनाको पूर्ण किया है. इन्होंने अनुसन्धित अपनी इस वृत्तिमें यह सूचित किया है " निर्माप्य षष्ठगणधर-व्याख्यानं किल दिवंगता पूज्याः" अर्थात् छठे गणधरवादका व्याख्यान करके पूज्य जिनभद्रगणी स्वर्गवासी हुए. आगेकी वृत्तिका अनुसन्धान इन्होंने किया है. इस रचनाके अतिरिक्त इनकी अन्य कोई रचना नहीं मिली है. यह स्वोपज्ञवृत्ति ला० द० विद्यामन्दिर, अहमदाबादकी ओरसे प्रकाशित होगी. (३४) सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण (वि० छठी शती)--इनकी आज कोई स्वतन्त्र रचना प्राप्त नहीं है. इनके रचे हुए कुछ सन्दर्भ, जो नियुक्ति, भाष्य आदिके व्याख्यानरूप गाथासन्दर्भ हैं, निशीथचूर्णि व आवश्यकचूर्णिमें मिलते हैं. निशीथचूर्णिमें इनका नाम एवं गाथाएँ छः जगह उल्लिखित हैं, जिनके भद्रबाहुकृत नियुक्तिगाथाओं तथा पुरातनगाथाओंके व्याख्यानरूप होनेका निर्देश है. आवश्यकचूर्णिमें (विभाग २, पत्र २३३) इनके नामके साथ दो व्याख्यान-गाथाएँ दी गई हैं. पंचकल्पचूर्णिमें भी “ उक्तं च सिद्धसेनक्षमाश्रमणगुरुभिः" ऐसा लिख कर इनकी एक गाथाका Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ८ ] જ્ઞાનાંજલિ उद्धरण किया है. इन उल्लेखों से पता चलता है कि इनकी आगमिक व्याख्यानगर्भित कोई कृति या कृतियाँ अवश्य होनी चाहिए, जो आज उपलब्ध नहीं हैं. (३५) सिद्धसेनगणि ( वि० सं० छठी शती) - इनकी एक ही कृति प्राप्त हुई है - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत जीतकल्प पर रचित चूर्णि उपर्युक्त सिद्धसेनगणी क्षमाश्रमणसे ये सिद्धसेन गणि भिन्न हैं. (३६) जिनदासगणी महत्तर (वि० ७वीं शताब्दी) - निशीथचूर्णिके प्रारम्भिक उल्लेखानुसार इनके विद्यागुरु प्रद्युम्नगगि क्षमाश्रमण थे. आज जो चूर्गियाँ उपलब्ध हैं इनमें से नन्दी, अनुयोगद्वार और निशीथकी चूर्णियां इन्हीं की रचनाएँ हैं. (३७) गोपालिक महत्तर शिष्य (वि० ७वीं शताब्दी ) उत्तराध्ययनचूर्णिके रचयिता आचार्यने अपने नामका निर्देश न कर 'गोपालिक महत्तर शिष्य' इतना ही उल्लेख किया है. इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है. 44 (३८) जिनभट या जिनभद्र (वि० ८वीं शताब्दी ) ये हरिभद्रके विद्यागुरु थे. आवश्यक वृत्तिके अन्तमें आवार्य हरिभद्रने इनका नामोल्लेख किया है. एतद्विषयक पुष्पिका इस • प्रकार है"कृतिः सिताम्बराचार्यजिन भटनिगदानुसारिणो विद्याधर कुलतिलकाचार्यजिनदत्त शिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासू नोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य. " इस उल्लेखमें 'जिनमटनिगदानुसारिणः ' वाक्य विद्यागुरुत्वका सूचक है. प्रत्यन्तरोंमें 'जिनभट ' के बजाय ' जिनभद्र ' नाम भी मिलता है. " गुरवस्तु व्याचक्षते " ऐसा लिखकर कई जगह हरिभद्रसूरिने अपनी कृतियोंमें इनके मन्तव्यका निर्देश किया है. (३९) हरिभद्रसूरि (वि० ८वीं शताब्दी) इनका उपनाम 'भवविरह' भी है. अपनी कृतियोंमें इन्होंने 'भवविरह' पदका कई जगह प्रयोग किया है. कहीं कहीं इनकी कृतियों में केवल 'विरह' पदका प्रयोग होनेके कारण इन्हें विरहाङ्क भी कहते हैं. ये अपनेको अनेक ग्रन्थोंकी अन्तिम पुष्पिका 'धर्मतो याकिनीमहत्तरासून ' के रूपमें भी लिखते हैं. ये जैन आगमों के पारंगत आचार्य थे एवं दर्शनशास्त्रोंके प्रखर ज्ञाता थे. इन्होंने १४४४ प्रन्थों की रचना की ऐसा प्रघोष चला आता है. इन्होंने अपनी कृतियोंमें अपनी जिन-जिन रचनाओंके नाम निर्दिष्ट किये हैं उनमेंसे भी बहुतसे ग्रन्थ आज अप्राप्य हैं. फिर भी प्राचीन ज्ञानभंडारों को टटोलने से इनकी नई रचनाएँ प्राप्त होती हैं. कुछ वर्ष पहले ही खंभातके प्राचीन ताड़पत्रीय भंडारमेंसे इनका रचा हुआ योगशतक नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था. अभी हाल ही में कच्छ- मांडवीके खतरगच्छीय प्राचीन ज्ञानभंडरमेंसे इसी ग्रन्थकी स्वोपज्ञ टीकाकी वि० सं० १९६४में लिखी हुई ताड़पत्रीय प्रति भी प्राप्त हुई है. - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડમય [. इसी प्रकार आज अपने पास जो लाखों की तादादमें हस्तप्रतियां विद्यमान हैं, जिनकी व्यवस्थित सूचियां अभी तक नहीं बनी हैं, उन्हें टटोला जाय तो, बहुत संभव है कि, अपनी कल्पनामें भी न हो ऐसी प्राचीन प्राचीनतम अनेक कृतियां प्राप्त हो. आचार्य हरिभद्रने तत्त्वविचार और आचारके निरूपणमें समन्वयशैलीको विशिष्ट रूपसे आदर दिया है, अतः इनकी रचनाओं में प्रचुर गांभीर्य आया है. इनके विषयमें विद्वानोंने अनेक दृष्टियोंसे काफी लिखा है, तथापि प्रसंगवश यहां कुछ कहना अनुचित न होगा. इन्होंने आवश्यक, नन्दो, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम और पिण्डनियुक्ति --- इन जैन आगमों पर अप्रतिम एवं मौलिक वृत्तियों का निर्माण किया है. आवश्यकसूत्र पर तो इन्होंने दो वृत्तियाँ लिखी थीं. इनमें से शिष्यहिता नामक २२००० श्लोकपरिमित लघुवृत्ति ही प्राप्त है; किन्तु दुर्भाग्य है कि दार्शनिक चिन्तनोंके महासागर जैसी बृहद्वृत्ति अनुपलब्ध है. इस वृत्तिका इन्होंने अपनी शिष्यहिता-लघुवृत्तिके प्रारंभमें " यद्यपि मया तथान्यैः कृताऽस्य विवृत्तिस्तथापि संक्षेपात्" इस प्रकार निर्देश किया है. इसी बृहद्वृत्तिको लक्ष्य करके इन्होंने नन्दीसूत्रकी वृत्तिमें भी “ साङ्केतिकशब्दार्थसम्बन्धवादिमतमप्यावश्यक विचारयिष्यामः" इस प्रकारका उल्लेख किया है. इस उल्लेबसे पता लगता है कि इस बहवृत्तिमें इन्होंने कितने दार्शनिक वादोकी गहरी समीक्षा की होगी. इस बृहद्वृत्तिका प्रमाण मलधारी आचार्य हेमचन्द्रने अपने आवश्यक हारिभद्री वृत्तिके टिप्पनमें (पत्र २-१) " यद्यपि मया वृत्तिः कृता इत्येवंवादिनि वृत्तिकारे चतुरशीतिसहस्रप्रमाणाऽनेनैवावश्यकवृत्तिरपरा कृताऽऽसीदिति प्रवादः” इस उल्लेख द्वारा ८४००० श्लोक बतलाया है. आचार्य हरिभद्र अनेक विषयोंके महान् ज्ञाता थे. इनकी ग्रन्थरचनाओंका प्रवाह देखनेसे अनुमान होता है कि ये पूर्वावस्थामें सांख्यमतानुयायी रहे होंगे. इन्होंने उस युगके भारतीय दर्शनशास्त्रोंका गहगईसे अध्ययन करनेमें कोई कमी नहीं रखी थी. यही कारण है कि इन्होंने अतिगंभीरतापूर्वक समस्त दार्शनिक तत्त्वोंका जैनदर्शनके साथ समन्वय करनेका प्रयत्न किया है. इन्होंने धर्मसंग्रहणी, पंचवस्तुक, उपदेशपद, विंशतिविशिका, पंचाशक, योगशतक, श्रावकधर्मविधितंत्र, दिनशुद्धि आदि शास्त्रोंका तथा समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि कथाओंका प्राकृत भाषामें निर्माण कर प्राकृतभाषाको समृद्ध किया है. इन ग्रन्थोंमें दार्शनिक, शास्त्रीय, ज्योतिष, योग, चरित्र आदि अनेक विषयों का संग्रह है. इस प्रकार प्राकृतभाषाको इनकी बड़ो देन है. इसी प्रकार संस्कृतमें भी इन्होंने अनेकान्तवाद, अनेकान्तजयपताका, न्यायप्रवेश, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, धर्मबिन्दु, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय आदि ग्रन्थ बनाये हैं. इस प्रकार संस्कृतभाषाको भी इनकी बड़ी देन है. (४०) कोटयाचार्य - (वि० ९वीं शताब्दी) इन्होंने विशेषावश्यकमहाभाष्य पर टीका की है. इसके अलावा इनकी अन्य कोई रचना नहीं मिली है, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] જ્ઞાનાંજલિ (४१) वीराचार्ययुगल - (१ वि० ९-१० शताब्दी और २ वि० १३ श०) आचार्य हरिभद्र उपर्युक्त पिण्डनियुक्तिवृत्तिको पूर्ण किये बिना ही दिवंगत हो गये थे. इसकी पूर्ति वीराचार्यने की थी. वीराचार्य दो हुए हैं. एक आचार्य हरिभद्रकी अपूर्ण वृत्तिको पूर्ण करनेवाले और दूसरे पिण्डनियुक्तिकी स्वतन्त्र वृत्ति बनाने वाले. इन दूसरे वौराचार्यने अपनी वृत्तिके प्रारम्भमें इस प्रकार लिखा है : “पञ्चाशकादिशास्त्रव्यूहप्रविधायका विवृतिमस्याः । आरेभिरे विधातु पूर्व हरिभद्रप्रिवराः ॥७॥ ते स्थापनोख्यदोषं यावद् विवृति विधाय दिवमगमन् । तदुपरितनी तु कैश्चिद् वीराचार्यैः समाप्येषा ॥८॥ तत्रामीभिरमुष्याः सुगमा गाथा इमा इति विभाव्य । काश्चिन्न व्याख्याताः, या विवृतास्ता अपि स्तोकम् ॥९॥ ताः सम्प्रति मन्दधियां दुर्बोधा इति मया समस्तानाम् । तासां व्यक्तव्याख्याहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥१०॥ (४२) शीलांकाचार्य (वि० १० श०)- इन्होंने आचारांग व सूत्रकृतांगकी टीका की है. इन दो टीकाओंमें दार्शनिक पदार्थोकी अनेक प्रकारसे विचारणा की गई है. आचारांग प्रथम श्रुत स्कंध टिकाकी समाप्ति वि० सं० ९०७में हुई है और द्वितीय श्रुतस्कंधटीकाकी समाप्ति वि० सं० ९१९ या ९३३में हुई है. चउप्पन्नमहापुरिसचरियके प्रणेता शोलांकसे ये शीलांक भिन्न हैं. (४३) वादिवेताल शान्तिसूरि (वि० ११ वीं शताब्दी )--उत्तराध्ययनसूत्रकी पाइयटीकाके प्रणेता यही आचार्य हैं. ये विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीमें हुए हैं. गोपालिकमहत्तरशिष्य प्रणीत चूर्णिके बाद अनेक दार्शनिक वादों से पूर्ण समर्थ टीका यही है. इसके बाद जो अनेक टीकाएँ लिखी गई उन सबका मूल स्रोत यही टोका है. इसमें प्राकृत अंशकी अधिकता है अतः इसका नाम 'पाइय टीका' प्रचलित हो गया है. आचार्य हरिभद्रविरचित और आचार्य मलयगिरिविरचित आवश्यकसूत्रकी टीकाएँ, द्रोणाचार्यकी ओधनियुक्तिवृत्ति व नेमिचन्द्रसूरिकी उत्तगध्ययनसूत्रकी सुखबोधा टीका प्राकृतप्रधान ही है. (४४) द्रोणाचार्य (वि० १२ श०)- ये जैन आगमोंके अतिरिक्त स्वपरदर्शनशास्त्रोके भी ज्ञाता आचार्य थे. इन्होंने अभयदेवाचार्यविरचित जैन अंग आगमोंकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्य टीकाग्रन्थोंका भी संशोधन आदि किया है. इनकी अपनी एक ही कृति है और वह है ओघनियुक्तिवृत्ति. (४५) अभयदेवसूरि (वि० १२ वीं श०)-- इन्होंने स्थानांग आदि नौ अंगसूत्रों पर वृत्तियां बनाई हैं अतः ये 'नवाझवृत्तिकार 'के नामसे पहचाने जाते हैं. इन अंग आगमोंमें जगह -जगह वर्णक-संदर्भीका निर्देश किया गया है अतः सर्वप्रथम इन्होंने औपपातिक उपांगसूत्रकी वृत्ति Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [४१ बनाई जिससे बार-बार आनेवाले निर्दिष्ट वर्णकस्थानोमें एकवाक्यता बनी रहे. आचार्य अभयदेवसूरिकी इन वृत्तियोंका संशोधन व परिवर्धन उपर्युक्त चैत्यवासी श्री द्रोणाचार्यने किया है, जो उस. युगके एक महान् आगमधर आचार्य थे. आचार्य अभयदेवसूरिने अपनी इन वृत्तियों में काफी दत्तचित्त होकर अपने युगमें प्राप्त अनेकानेक प्राचीन-प्राचीनतम सूत्रप्रतियोंको एकत्र कर अंगसूत्रोके पाठोंको व्यवस्थित करनेका महान् कार्य किया है, अतः इनकी वृत्तियों में पाठभेद एवं वाचनान्तर आदिका काफी संग्रह हुआ है. इस कार्यमें इनके अनेक विद्वान् शिष्य-प्रशिष्योंने इन्हें सहायता दी है, इस प्रकारका उल्लेख इन्होंने अपनी ग्रन्थप्रशस्तियों में किया है. (४६) मलधारी हेमचन्द्रसरि (वि० १२ श०)--ये आचार्य जैन आगमोंके समर्थ ज्ञाता थे. इन्होंने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित विशेषावश्यकमहाभाष्य पर २८००० श्लोकपरिमित विस्तृत विवरणकी रचना वि० सं० ११७५में की. अनुयोगद्वारसूत्र पर इन्होंने विस्तृत व्याख्या रची है. आवश्यकसूत्रकी हारिभद्रीवृत्ति पर विस्तृत टिप्पन भी इन्होंने लिखा है. ये रचनाएं इनके प्रखर पाण्डित्यकी सूचक हैं. इन विवरणोंके अतिरिक्त इन्होंने प्राचीन शतककर्मग्रन्थवृत्ति, जीवसमासप्रकरणवृत्ति, पुष्पमालाप्रकरण स्वोपज्ञवृत्तियुक्त, भवभावनाप्रकरण स्वोपज्ञवृत्तियुक्त आदि अन्य ग्रन्थ भी बनाये हैं. विशेषावश्यकमहाभाष्यकी टीकाके अन्तमें आपने अपनी ग्रन्थरचनाओंका क्रम इस प्रकार दिया है-- __“ ततो मया तस्य परमपुरुषस्योपदेशं श्रुत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनकाभिधानं सद्भावनामञ्जूषायां नूतनफलकम्. ततोऽपरमपि शतकविवरणनामकम् , अन्यदप्यनुयोगद्वारवृत्तिसंज्ञितम् , ततोऽपरमप्युपदेशमालासूत्राभिधानम् , अपरं तु तवृत्तिनामकम् , अन्यच्च जीवसमासविवरणनामधेयम्, अन्यत्तु भवभावनासूत्रसंज्ञितम् अपरं तु तद्विवरणनामकम् , अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं नूतनं फलकम्. एतैश्च नूतनफलकैनिवेशितैर्वज्रमयीव सञ्जातासौ मञ्जूषा तेषां पापानामगम्या. ततस्तैरतीवच्छलघातितया सञ्चूर्णयितुमारब्धं तद्द्वार-कपाटसम्पुटम् , ततो मया ससम्भ्रमेण निपुणं तत्प्रतिविधानोपायं चिन्तयित्वा विरचयितुमारब्धं तद्द्वारपिधानहेतोविशेषावश्यकविवरणाभिधानं वज्रमयमिव नूतनकपाटसम्पुटम् , ततश्चाभयकुमारगणि-धनदेवगणि-जिनभद्रगणि-लक्ष्मणगणि-विबुधचन्द्रादिमुनिवृन्द-श्रीमहानन्द-श्रीमहत्तरा वीरमतीगणिन्यादिसाहाय्याद् रे रे ! निश्चितमिदानी हता वयं यद्येतन्निष्पद्यते, ततो धावत धावत गृहीत गृह्णीत लगत लगत' इत्यादि प्रकुर्वतां सर्वात्मशक्त्या प्रहरतां हाहारवं कुर्वतां च मोहादिचरटानां चिरात् कथं कथमपि विरचय्य तद्वारे निवेशितमेतदिति.” [ पत्र १३५६ ] इस उल्लेखमें आपने नन्दिटिप्पनक रचनाका उल्लेख किया है, जो आज प्राप्त नहीं है. साथमें यह भी एक बात है. कि- इन्हींके शिष्य श्री श्रीचन्द्रसूरिने प्राकृत मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रके ८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] જ્ઞાનાંજલિ अन्तमें श्री हेमचन्द्रसूरिका जीवनचरित्र दिया है जिसमें इनकी ग्रन्थरचनाओंका भी उल्लेख किया है। किन्तु उसमें नन्दी टिप्पनकके नामका निर्देश नहीं है, यह आश्चर्य की बात है. मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रका उल्लेख इस प्रकार है जे सेण सयं रहया गंथा ते संपर कहेमि ॥४१॥ सुत्तमुवपसमाला-भवभावणपगरणाणि काऊणं । गंथसहस्सा चउदस तेरस वित्ती कया जेण ॥४२॥ अणुओगद्दाराणं जीवसमासस्स तह य सयगस्स । जेणं छ सत्त चउरो गंथसहस्सा कया वित्ती ॥ ४३ ॥ मूलावलय वित्तीय उवरि रश्यं च टिप्पणं जेण । पंच सहस्सपमाणं विसमट्ठाणावबोधयरं ॥४४॥ जेण विसेसावस्य सुत्तस्सुवरिं सवित्रा वित्ती । रइया परिष्फुडत्था अडवीससहस्सपरिमाणा ॥ ४५ ॥ वक्खाणगुण सिद्धिं सोऊणं जस्स गुजरनरिंदो । जयसिंहदेवनामो कयगुणिजणमणचमक्कारो ॥४६॥ इस उल्लेखमें श्रीहेमचन्द्रसूरिरचित सब ग्रन्थोंके नाम और उनका ग्रन्थप्रमाण भी उल्लिखित है. सिर्फ इसमें नन्दीसूत्र टिप्पनकका नाम शामिल नहीं है. संभावना की जाती है कि इस चरितकी प्रारम्भिक नकल करनेके समय प्राचीन कालसे ही ४४ गाथाके बादकी एक गाथा छुट गई है. अस्तु, कुछ भी हो, श्रीहेमचन्द्रसूरि महाराजने आप ही अपनी विशेषावश्यकवृत्तिके अन्तमें " अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं फलकम् " ऐसा उल्लेख किया है. इससे यह बात तो निर्विवाद है कि आपने नन्दिटिप्पनककी रचना अवश्य की थी, जो आज प्राप्त नहीं है. आज जो नन्दिटिप्पनक प्राप्त है वह शीलभद्रसूरि एवं धनेश्वरसूरि इन दो गुरुके शिष्य श्रीचन्द्रसूरिका रचित है जो प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीकी ओरसे छप कर प्रकाशित होगा. (४७) आचार्य मलयगिरि ( वि० १२-१३ श ० ) – इनके गुरु, गच्छ आदिके नामका कोई पता नहीं लगता. ये गूर्जरेश्वर चौलुक्यराज जयसिंहदेव के माननीय और महाराजा कुमारपालदेवके धर्मगुरु श्रीहेमचन्द्राचार्य के विद्या-आराधना के सहचारी थे. आचार्य हेमचन्द्र के साथ इनका सम्बन्ध अति गहरे पूज्यभावका था. इसलिए इन्होंने अपनी आवश्यकवृत्तिमें आचार्य हेमचन्द्रकी द्वात्रिंशिकाका उद्धरण देते हुए " आह च स्तुतिषु गुरवः " इस प्रकार उनके लिए अत्यादरगर्भित शब्दप्रयोग किया है. इन्होंने नन्दीसूत्र, भगवती - द्वितीयशतक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प, आवश्यक पिण्डनिर्युक्ति एवं ज्योतिष्करण्डक - इन जैन आगमों पर सपादलक्ष लोकप्रमाण वृत्तियोंकी रचना की है. इनकी इन वृत्तियों और धर्मसंग्रहणी, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાય [४३ आदिकी वृत्तिओंके अवगाहनसे पता लगता है कि ये केवल जैन आगमोंके ही धुरंधर ज्ञाता एवं पारंगत विद्वान् न थे अपितु गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं कर्मसिद्धान्तमें भी पारंगत थे. इन्होंने मलयगिरिशब्दानुशासन नामक व्याकरणकी भी रचना की थी. अपने वृत्तिग्रंथों में ये इसी व्याकरणके सूत्रोंका उल्लेख करते हैं. इनके जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ओघनियुक्तिटीका, विशेषावश्यकवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रटीका, धर्मसारप्रकरणटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरणटीका आदि कई ग्रन्थ आज प्राप्त नहीं हैं. इनकी कोई मौलिक कृति उपलब्ध नहीं है. देखा जाता है कि ये व्याख्याकार ही रहे हैं. व्याख्याकारों में इनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है. ___ (४८) श्रीचन्द्रसरि (वि. १२-१३ श०)--श्री श्रीचन्द्रसूरि दो हुए हैं. एक मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिके शिष्य, जिन्होंने संग्रहणीप्रकरण, मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र प्राकृत, लघुप्रवचनसारोद्धार आदिकी रचना की है. दूसरे चन्द्रकुलीन श्रीशीलभद्रसूरि और धनेश्वरसूरि गुरुयुगलके शिष्य, जिन्होंने न्यायप्रवेशपञ्जिका, जयदेव छन्दःशास्त्रवृत्ति-टिप्पनक, निशीथचूर्णिटिप्पनक , नन्दिसूत्रहारिभद्रीवृत्तिटिप्पनक, जीतकल्पचूर्णिटिप्पनक, पंचोपांगसूत्रवृत्ति, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, पिण्डविशुद्धिवृत्ति आदिकी रचना की है. यहाँ पर ये दूसरे श्रीचन्द्रसूरि ही अभिप्रेत हैं. इनका आचार्यावस्थाके पूर्वमें पार्श्वदेवगणि नाम था-ऐसा आपने ही न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी अन्तिम पुष्पिकामें सूचित किया है. (४९) आचार्य क्षेमकीर्ति (वि. १३३२)-ये तपागच्छके मान्य गीतार्थ आचार्य थे. आचार्य मलयगिरिप्रारब्ध बृहत्कल्पवृत्तिकी पूर्ति इन्होंने बड़ी योग्यताके साथ की है. आचार्य मलयगिरिने जो वृत्ति केवल पीठिकाकी गाथा ६०६ पर्यन्त ही लिखी थी उसकी पूर्ति लगभग सौ वर्षके बाद में इन्होंने वि० सं० १३३२में की. इस वृत्तिके अतिरिक्त इनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं हुई है. बृहद्भाष्यकारादि (वि० ८ वीं श०)-यहां पर अनेकानेक प्राचीन स्थविरोंका जो महान् आगमधर थे तथा जिनके पास प्राचीन गुरुपरम्पराओंकी विरासत थी, संक्षेपमें परिचय दिया गया. ऐसे भी अनेक गीतार्थ स्थविर हैं जिनके नामका कोई पता नहीं है. कल्पबृहद्भाष्यकार आदि एवं कल्पविशेषचूर्णिकार आदि इसी प्रकारके स्थविर हैं जिनकी विद्वत्ताकी परिचायक कृतियां आज हमारे सामने विद्यमान हैं. अवचूर्णिकारादि (वि. १२ श० से १८ श०)- ऊपर जैन आगमोंके धुरंधर स्थविरोंका परिचय दिया गया है. इनके बाद एक छोटा किन्तु महत्त्वका कार्य करने वाले जो प्रकीर्णककार, अवचूर्णिकार आदि आचार्य हुए हैं वे भी चिरस्मरणीय हैं. यहाँ संक्षेपमें इनके नामादिका उल्लेख कर देता हूँ-- १. पार्श्वसाधु [वि० सं० ९५६], २. वीरभद्रगणि [वि० सं० १०७८ में आराधनापताका, बृहश्चतुःशरण आदिके प्रणेता], ३. नमिसाधु [सं. ११२३]. ४. नेमिचन्द्रसूरि [सं० ११२९], Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] જ્ઞાનાલિ ५. मुनिचन्द्रसूरि [वि० १२वीं शताब्दी; ललितविस्तरा पञ्जिका, उपदेशपदटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरणवृत्ति, अनेकसंख्यप्रकरण, कुलक आदिके प्रणेता ], ६. यशोदेवसूरि [सं० १९८० ], ७. विजयसिंहसूरि [सं० १९८३, श्रावकप्रतिक्रमणचूर्णिके प्रणेता ], ८. तिलकाचार्य [सं० १२९६], ९. सुमतिसाधु [वि० १३वीं श० ], १०. पृथ्वीचन्द्रसूरि [वि० १३वीं श० ], ११. जिनप्रभसूरि [सं० १३६४], १२. भुवनतुंगसूरि [वि०१४ वश० ], १३. ज्ञानसागरसूरि [सं० १४४० ], १४. गुणरत्नसूरि [वि० १५वीं श० ], १५. रत्नशेखरसूरि [सं० १४९६], १६. कमलसंयमोपाध्याय [सं० १५४४ ], १७. विनयहंसगणि [सं० १५७२ ], १८. जिन हंससूरि [सं० १५८२], १९. हर्षकुल [सं० १५८३], २०. ब्रह्मर्षि [वि० १६वीं श० ], २१. विजयविमलगणी - वार्षि [सं० १६३४], २२. समयसुन्दरोपाध्याय [वि० १७ वीं श० ], २३. धर्मसागरोपाध्याय [सं० १६३९], २४. पुण्यसागरोपाध्याय [सं० १६४५ ], २५. शान्तिचन्द्रोपाध्याय [सं० १६५० ], २६. भावविजयगणि [वि० १७ वीं श० ], २७, ज्ञानविमलसूरि [वि० १७वीं श० ], २८. लक्ष्मीवल्लभगणि [वि० १७वीं श० ], २९-३० सुमतिकल्लोलगण व हर्षनन्दनगणि [सं० १७०५, स्थानांगसूत्रवृत्तिगतगाथावृत्तिके रचयिता ], ३१. नगर्षि [वि० १८ वीं श० ] इत्यादि. इन विद्वान् आचार्योंने जैन आगमों पर छोटी-बड़ी महत्त्वकी वृत्ति, लघुवृत्ति, पंजिका, अवचूरि, अवचूर्णि, दीपिका, दीपक, टिप्पन, विषमपदपर्याय आदि भिन्न भिन्न नामों वाली व्याख्याएं लिखी हैं जो मूलसूत्रोंका अर्थ समझने में बड़ी सहायक है. ये व्याख्याएं प्राचीन वृत्तियोंके अंशोंका शब्दशः संग्रह रूप होने पर भी कभी-कभी इन व्याख्याओं में पारिभाषिक संकेतोंको समझानेके लिए प्रचलित देशी भाषाका भी उपयोग किया गया हैं. कहीं-कहीं प्राचीन वृत्तियों में 'सुगम' ' स्पष्ट ' 'पाठसिद्ध' आदि लिखकर छोड़ दिये गये स्थानोंकी व्याख्या भी इनमें पाई जाती है. इस दृष्टिसे इन व्याख्याकारोंके भी हम बहुत कृतज्ञ हैं. प्राकृत वाङ्मय भारतीय प्राकृत वाङ्मय अनेक विषयोंमें विभक्त है. सामान्यतः इनका विभाग इस प्रकार किया जा सकता है : -- जैन आगम, जैन प्रकरण, जैन चरित-कथा, स्तुति स्तोत्रादि, व्याकरण, कोष, छंदःशास्त्र, अलंकार, काव्य, नाटक, सुभाषित आदि. यहां पर इन सबका संक्षेपमें परिचय दिया जायगा. जैन आगम - जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध साहित्य मुख्य और अवान्तर अनेक विभागों में विभक्त है उसी प्रकार जैन आगम भी अनेक विभागों में विभक्त है. प्राचीन कालमें आगमोंके अंग आगम और अंगबाह्य आगम या कालिक आगम और उत्कालिक आगम इस तरह विभाग किये जाते थे. अंग आगम वे हैं जिनका श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर - पट्टशिष्योंने Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય निर्माण किया है. अंगबाह्य आगम वे हैं जिनकी रचना श्रमण भगवान् महावीरके अन्य गीतार्य स्थविरों, शिष्यों-प्रशिष्यों एवं उनके परम्परागत स्थविरों ने की थी. स्थविरोंने इन्हीं आगमोंके कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये हैं. निश्चित किये गये समयमें पढ़े जाने वाले आगम कालिक हैं और किसी भी समयमें पढ़े जाने वाले आगम उत्कालिक हैं. आज सैकडों वर्षोंसे इनके मुख्य विभाग अंग, उपांग, छेद, मूल, आगम, शेष आगम एवं प्रकीर्णकके रूपमें रूढ़ हैं. प्राचीन युगमें इन आगमोंकी संख्या नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रके अनुसार चौरासी थी परन्तु आज पैंतालिस है. नंदीसूत्र में एवं पाक्षिकसूत्रमें जिन आगमोंके नाम दिये हैं उनमेंसे आज बहुतसे आगम अप्राप्य हैं जब कि आज माने जानेवाले आगमोंको संख्यामें नये नाम भी दाखिल हो गये हैं जो बहुत पीछेके अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दीके प्रथम चरणके भी हैं. आज माने जानेवाले पैंतालीस आगमोंमेंसे बयालीस आगमोंके नाम नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रमें पाये जाते हैं किन्तु आज आगमोंका जो क्रम प्रचलित है वह ग्यारह अंगोंको छोड़ कर शेष आगमोंका नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्रमें नहीं पाया जाता. नंदीसूत्रकारने अंग आगमको छोड़कर शेष सभी आगमोंको प्रकीर्णकोंमें समाविष्ट किया है. आगमके अंग, उपांग, छेद, प्रकीर्णक आदि विभागोंमेंसे अंगों के बारह होनेका समर्थन स्वयं अंग ग्रंथ भी करते हैं. उपांग आज बारह माने जाते हैं किन्तु स्वयं निरयावलिका नामक उपांगमें उपांगके पांच वर्ग होनेका उल्लेख है. छेद शब्द नियुक्तियोंमें निशीथादिके लिए प्रयुक्त है. प्रकीर्णक शब्द भी नंदीसूत्र जितना तो पुराना है ही किन्तु उसमें अंगेतर सभी आगमोंको प्रकीर्णक कहा गया है. अंग आगमोंको छोड़कर दूसरे आगमों का निर्माण अलग-अलग समयमें हुआ है. पण्णवणा सूत्र श्यामार्यप्रणीत है. दशा, कल्प एवं व्यवहार सूत्रके प्रणेता चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं. निशीथसूत्रके प्रणेता आर्य भद्रबाहु या विशाखगणि महत्तर हैं. अनुयोगद्वारसूत्रके निर्माता स्थविर आर्यरक्षित हैं. नंदीसूत्रके कर्ता श्री देववाचक है. प्रकीर्णकोंमें गिने जाने वाले चउसरण, आउरपञ्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताकाके रचयिता वीरभद्रगणि हैं. ये आराधनापताकाकी प्रशस्तिके 'विक्कमनिवकालाओ अठुत्तरिमे समासहस्सम्मि' और 'अत्तरिमे समासहस्सम्मि' पाठभेदके अनुसार विक्रम संवत् १००८ या १०७८ में हुए हैं. बृहटिप्पणिकाकारने आराधनापताकाका रचनाकाल 'आराधनापताका १०७८ वर्षे वीरभद्राचार्यकृता' अर्थात् सं० १०७८ कहा है. 'आराधनापताका' में ग्रंथकारने 'आराहणाविहिं पुण भत्तपरिणाइ वण्णिमो पुचि' (गाथा ५१) अर्थात् 'आराधनाविधिका वर्णन हमने पहले भक्त-परिज्ञामें कर दिया है' ऐसा लिखा है. इस निर्देशसे यह ग्रंथ इन्हींका रचा हुआ सिद्ध होता है. आजके चउसरण एवं आउरपञ्चक्खाणके रचना-क्रमको देखनेसे ये प्रकीर्णक भी इन्हींके रचे हुए प्रतीत होते हैं. वीरभद्र की यह आराधनापताका यापनीय ‘आचार्यप्रणीत आराधना भगवती' का अनुकरण करके रची गई है. नंदीसूत्रमें 'आउरपञ्चक्खाण' का जो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] જ્ઞાનાંજલિ नाम आता है वह आजके 'आउरपञ्चक्खाणसे अलग है. सामान्यतः वीरभदाचार्यको भगवान् महावीरका शिष्य मानते हैं परन्तु उपरोक्त प्रमाणको पढ़नेके वाद यह मान्यता भ्रान्त सिद्ध होती है. इस प्रकार दूसरे आगम भी अलग-अलग समयमें रचे हुए हैं. हो सकता है कि रायपसेणीयसूत्र भगवान् महावीरके समय ही में रचा गया हो. नंदी-पाक्षिक सूत्रोंके अनुसार आगमोंके चौरासी नामों व आजके प्रचलित आगमों के नामोंसे विद्वान् परिचित हैं ही अतः उनका उल्लेख न करके मैं मुद्देकी बात कह देता हूँ कि- आज अंगसूत्रोंमें जो प्रश्नव्याकरणसूत्र है वह मौलिक नहीं किन्तु तत्स्थानापन्न कोई नया ही सूत्र है. इस बातका पता नंदीसूत्र व समवायांगके आगम-परिचयसे लगता है. आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिने देवेन्द्र-नरकेन्द्र प्रकरणकी अपनी वृत्तिमें राजप्रश्नीय सूत्रका नाम 'राजप्रसेनजित्' लिखा है जो नंदीपाक्षिक सूत्रमें दीये हुए ‘रायप्पसेणइय' इस प्राकृत नामसे संगति बैठानेके लिए है. वैसे राजप्रश्नीयमें प्रदेशिराजाका चरित्र है. इस आगमको पढ़ते हुए पेतवत्थु नामक बौद्धग्रंथका स्मरण हो जाता है. प्रकीर्णक-सामान्यतया प्रकीर्णक दस माने जाते हैं किन्तु इनकी कोई निश्चित नामावली न होनेके कारण ये नाम कई प्रकारसे गिनाये जाते हैं. इन सब प्रकारोमें से संग्रह किया जाय तो कुल बाईस नाम प्राप्त होते हैं जो इस प्रकार हैं - १. चउसरण, २. आउरपञ्चक्वाण, ३. भत्तपरिणगा, ४. संथारय, ५. तंदुलवेयालिय, ६. चंदावेमय, ७. देविदत्थय, ८. गणिविज्जा, ९. महापच्चक्खाण, १०. वीरस्थय, ११ इसिभासियाई, १२. अजीवकप्प, १३. गच्छायार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालि, १६. आराहणापडागा, १७. दीवसागरपण्णत्ति, १८. जोइसकरंडय, १९. अंगविजा, २०. सिद्धपाहुड, २१. सारावली, २२. जीवविभत्ति. इन प्रकीर्णकोंके नामोंमें से नंदी-पाक्षिकसूत्रमें उत्कालिक सूत्रविभागमें देविंदत्थय, तंदवेयालिय, चंदावेज्झय, गणिविजा, मरणविभत्ति-मरणसमाहि, आउरपच्चक्खाण, महापञ्चक्खाण, ये सात नाम और कालिक विभागमें इसिभासियाई, दोवसागरपण्णत्ति ये दो नाम इस प्रकार ९ नाम पाये जाते हैं. फिर भी चउसरण, आजका आउरपञ्चक्खाण, भत्तपरिणा, संथारय और आराहणापडागा-इन प्रकीर्णको को छोड़कर दूसरे प्रकीर्णक बहुत प्राचीन हैं, जिनका उल्लेख चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णियोंमें किया है. तंदुलवेयालियका उल्लेख अगस्त्यचूर्णि (पत्र ३)में है. जैसे कर्मप्रकृति शास्त्रका कम्मप्पगडीसंग्रहणी नाम कहा जाता है, इसी प्रकार दीवसागरपण्णत्तिका दीवसागरपण्णतिसंग्रहणी यह नाम संभावित है. श्वेतांबर मूर्तिपूजक वर्ग तित्थोगालिपइण्णयको प्रकीर्णकोंकी गिनतीमें शामिल करता है, किन्तु Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [ ४७ इस प्रकीर्णकमें ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो श्वेताम्बरों को स्वप्न में भी मान्य नहीं हैं और अनुभवसे देखा जाय तो उसमें आगमोंके नष्ट होनेका जो क्रम दिया है वह संगत भी नहीं है. अंगविज्जापइण्णय एक फलादेशका ९००० श्लोक परिमित महत्वका ग्रंथ है. इसमें ग्रहनक्षत्रादि या रेखादि लक्षणोंके आधार पर फलादेशका विचार नहीं किया गया है, किन्तु मानवकी अनेकविध चेष्टाओं एवं क्रियाओंके आधार पर फलादेश दिया गया है. एक तरह माना जाय तो मानसशास्त्र एवं अंगशास्त्रको लक्ष्य में रखकर इस ग्रंथकी रचना की गई है. भारतीय वाङ्मय में इस विषयका ऐसा एवं इतना महाकाय ग्रंथ दूसरा कोई भी उपलब्ध नहीं हुआ है. आगमोंकी व्याख्या ऊपर जिन जैन मूल आगमसूत्रोंका संक्षेपमें परिचय दिया गया है उनके ऊपर प्राकृत भाषामें अनेक प्रकारकी व्याख्याएँ लिखी गई हैं. इनके नाम क्रमशः -- निर्युक्ति, संग्रहणी, भाष्य, महाभाष्य; ये गाथाबद्ध पद्यबद्ध व्याख्याग्रंथ हैं. और चूर्णि, विशेषचूर्णि एवं प्राचीन वृत्तियाँ गद्यबद्ध व्याख्याग्रंथ हैं. नियुक्तियाँ -- स्थविर आर्य भद्रबाहु स्वामीने दस आगमों पर नियुक्तियाँ रची हैं, जिनके नाम इन्होंने आवश्यक निर्युक्तिमें इस प्रकार लिखे हैं आवस्यस्ल १ दसकालियरल २ तह उत्तरज्झ ३ मायारे ४ । सूयगडे णिज्जुन्ति ५ वोच्छामि तहा दसाणं च ६ ॥ कप्पस्स य णिज्जुप्ति, ववहारस्लेव परमनिउणस्स ८ । सूरियपण्णत्ती ९ वोच्छं इतिभासियाणं ब १० ॥ इन गाथाओं में सूचित किया है तदनुसार इन्होंने दस आगमोंकी नियुक्तियाँ रची थीं. आगमों की अस्तव्यस्त दशा, अनुयोगकी पृथक्ता आदि कारणोंसे इन नियुक्तियोंका मूल स्वरूप कायम न रहकर आज इनमें काफी परिवर्तन और हानि-वृद्धि हो चुके हैं. इन परिवर्तित एवं परिवर्द्धित नियुक्तियों का मौलिक परिमाण क्या था ? यह समझना आज कठिन है. खास करके जिन पर भाष्यमहाभाष्य रचे गये उनका मिश्रण तो ऐसा हो गया है कि स्वयं आचार्य श्री मलयगिरिको बृहत् - कल्पकी वृत्ति (पत्र १) में यह कहना पड़ा कि - - सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिर्भाव्यं चैको ग्रंथो जातः ' और उन्होंने अपनी वृत्ति में नियुक्ति-भाष्यको कहीं भी पृथक् करनेका प्रयत्न नहीं किया है. सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषितसूत्रकी नियुक्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं. उत्तराध्यन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशा इन आगमों की नियुक्तियोंका परिमाण स्पष्टरूपसे मालूम हो जाता है. आवश्यक, दशकालिक आदिकी नियुक्तियों का परिमाण भाष्यगाथाओंका मिश्रण हो जानेसे निश्चित करना कठिन जरूर है, तथापि परिश्रम करनेसे इसका निश्चय हो सकता है किन्तु कल्प व व्यवहारसूत्रकी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ ४४] नियुक्तियोंका परिमाण किसी भी प्रकार निश्चित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि--चूर्णि-विशेषचूर्णिकारों ने कहीं-कहीं 'पुरातनगाथा, नियुक्तिगाथा' इत्यादि लिखा है, जिससे नियुक्तिगाथाओका कुछ ख्याल आ सकता है तो भी संपूर्णतया नियुक्तिगाथाओंका विवेक या पृथक्करण करना मुश्किल ही है. __ ऊपर जिन नियुक्तिओंका उल्लेख किया है इनके अतिरिक्त ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति और संसक्तनियुक्ति ये तीन नियुक्तियां और मिलती हैं. इनमें से ओपनियुक्ति आवश्यकनियुक्तिमेंसे और पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्तिमेंसे अलग किये गये अंश हैं. संसक्तनियुक्ति बहुत बादकी एवं विसंगत रचना है. __ स्थविर आर्य भद्रबाहुविरचित नियुक्तियों के अलावा भाष्य और चूर्णियोंमें गोविंदनिज्जुत्तिका भी उल्लेख आता है, जो स्थविर आर्य गोविंदको रची हुई थी. आज इस नियुक्तिका पता नहीं है. यह नष्ट हो गई या किसी नियुक्तिमें समाविष्ट हो गई ! यह कहा नहीं जा सकता. निशीथचूर्णिमें इस प्रकारका उल्लेख मिलता है--" तेण एगिदियजीवसाहणं गोविन्दनिज्जुत्ती कया" इनके अलावा और किसी नियुक्तिकारका निर्देश नहीं मिलता है. नियुक्तियोंकी रचना मूलसूत्रोंके अंशोंके व्याख्यानरूप होती है. संग्रहणियां--संग्रहणियोंकी रचना पंचकल्प महाभाष्यके उल्लेखानुसार स्थविर आर्य कालककी है. पाक्षिकसूत्रमें भी “ ससुत्ते सत्ये सर्गथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" इस सूत्रांशमें संग्रहणीका उल्लेख है. इससे भी प्रतीत होता है कि संग्रहणियोंकी रचना काफी प्राचीन है, आज स्पष्टरूपसे पता नहीं चलता है कि-स्थविर आर्य कालकने कौनसे आगमोंकी संग्रहणियोंकी रचना की थी ? और उनका परिमाण क्या था ? तो भी अनुमान होता है कि--भगवतीसूत्र, जीवाभिगमोपांग प्रज्ञापनासूत्र, श्रमणप्रतिक्रमणसूत्र आदिमें जो संग्रहणियां पाई जाती हैं वे ही ये हो. इससे अधिक कहना कठिन है. भाष्य-महाभाष्य - जैन सूत्रोंके भाष्य-महाभाष्यकारके रूपमें दो क्षमाश्रणों के नाम पाये जाते हैं - १ संघदासगणि क्षमाश्रमण और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण. जैन आगमोंके महाकाय भाष्य-महाभाष्य निम्नोक आठ प्राप्य हैं - १ विशेषावश्यक महाभाष्य २ कल्पलघुभाष्य ३ कल्पबृहद्भाष्य ४ पंचकल्पभाष्य ५ व्यवहारभाष्य ६ निशीथभाष्य ७ जीतकल्पभाष्य ८ ओपनियुक्तिमहाभाष्य. कल्पलघुभाष्य एवं पंचकल्पमहाभाष्य के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं व विशेषावश्यक महाभाष्यके प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं. दूसरे भाष्य-महाभाष्योंके कर्ता कौन हैं, इसका पता अभी तक नहीं लगा है. संपदासगणि जिनभद्रगणिसे पूर्ववर्ती हैं. श्रीजिनभद्रगणि महाभाष्यकारके नामसे लब्धप्रतिष्ठ हैं. जिन आगमों पर नियुक्तियोंकी रचना है उनके भाष्य, मूलसूत्र व नियुक्तिको Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [ ४८ लक्ष्यमें रखकर रचे गये हैं. जिनकी नियुक्तियाँ नहीं हैं, उनके भाष्य सूत्रको ही लक्षित करके र गये हैं. उदाहरण रूपमें जीतकल्पसूत्र और उसका भाष्य समझना चाहिए. महाभाष्यके दो प्रकार हैं. - पहला प्रकार विशेषावश्यक महाभाष्य, ओघनियुक्ति महाभाष्य आदि हैं, जिनके लघुभाष्य नहीं हैं. वे सीधे निर्युक्तिके ऊपर ही स्वतंत्र महाभाष्य हैं. दूसरा प्रकार लघुभाष्यको लक्षित करके रचे हुए महाभाष्य हैं. इसका उदाहरण कल्पबृहद्भाष्य को समझना चाहिए. यह महाभाष्य अपूर्ण ही मिलता है. निशीथ और व्यवहारके भी महाभाष्य थे, ऐसा प्रघोष चला आता है, किन्तु आज वे प्राप्त नहीं हैं. निशीथ महाभाष्यके अस्तित्वका उल्लेख बृहट्टिप्पनिकाकार - प्राचीन ग्रंथसूचीकारने अपनी सूचीमें भी किया है. ऊपर जिन महाकाय भाष्य - महाभाष्यका परिचय दिया गया है उनके अलावा आवश्यक, ओघनियुक्ति, पिंडनिर्युक्ति, दशवैकालिक सूत्र आदिके ऊपर भी लघुभाष्य प्राप्त होते हैं. किन्तु इनका मिश्रण नियुक्तियों के साथ ऐसा हो गया है कि कई जगह नियुक्ति-भाष्यगाथा कौन-सी एवं कितनी हैं ? - इसका निर्णय करना कठिन हो जाता है. इसमेंसे भी जब मैंने आवश्यक सूत्र की चूर्णि और हारिभद्री वृत्तिको देखा तब तो मैं असमंसजमें पड़ गया. चूर्णिकार कहीं भी ' भाष्यगाथा' नामका उल्लेख नहीं करते हैं, जबकि आचार्य हरिभद्र स्थान-स्थान पर ' भाष्य और मूलभाष्य ' के नामसे अवतरण देते हैं. आचार्य श्री हरिभद्र जिन गाथाओं को मूलभाष्यकी गाथाएं फरमाते हैं उनमें से बहुत-सी गाथाओं का उल्लेख या उन पर चूर्णि चूर्णिकारने की ही नहीं है. यद्यपि उनमें से कई गाथाओंकी चूर्णि पाई जाती है, फिर भी चूर्णिकारने कहीं भी उन गाथाओंका 'मूलभाग्य' के रूप में उल्लेख नहीं किया है. प्रतीत होता है कि - आचार्य श्री हरिभद्रने दशवैकालिक नियुक्ति की तरह इस वृत्ति में काफी गाथाओंका संग्रह कर लिया है. ― चूर्णि - विशेषचूर्णि • आचारांग, सूत्रकृतांग. भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापनासूत्र, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, जीतकल्प, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, पिंडनिर्युक्ति, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार अंगुल - पदचूर्णि, श्रावकप्रतिक्रमण ईर्यापथिकी आदि सूत्र - इन आगमोंकी चूर्णियाँ अभी प्राप्त हैं. निशीथसूत्रकी आज विशेष चूर्णि ही प्राप्त हैं. कल्पकी चूर्णि - - विशेषचूर्णि दोनों ही प्राप्त हैं. दशवैकालिकसूत्रको दो चूर्णियाँ प्राप्त हैं. एक स्थविर अगस्त्य सिंह की और दूसरी अज्ञातकर्तृक है. आचार्य श्री हरिभद्रने इस चूर्णिका 'वृद्धविवरण' नाम दिया है. अनुयोगद्वारसूत्र में जो अंगुलपद है उस पर आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने चूर्णि रची है. चूर्णिकार श्री जिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्री हरिभद्रने अपनी अनुयोगद्वारसूत्रकी चूर्णि-वृत्ति में श्रीजिनभद्रके नामसे इसी चूर्णिको अक्षरशः ले लिया है. ईर्यापथिकीसूत्रादिकी चूर्णिके प्रणेता यशोदेवसूरि हैं, इसका रचनाकाल सं० ११७४ से ११८० का है. श्रावक प्रतिक्रमणचूर्णि श्री विजयसिंहरिकी रचना है, जो वि० सं. ११८२ की है. ७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] જ્ઞાનાંજલિ ज्योतिष्करंडक प्रकीर्णक पर शिवनंदी वाचक विरचित 'प्राकृत वृत्ति' पाई जाती है, जो चूर्णिमें शामिल हो सकती है. आम तौरसे देखा जाय तो पीछले जमानेमें प्राकृतवृत्तियों को 'चूर्णि' नाम दिया गया है. फिर भी ऐसे प्रकरण अपने सामने मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि प्राचीन कालमें प्राकृत व्याख्याओंको 'वृत्ति' नाम भी दिया जाता था, दशवैकालिकसूत्रके दोनों चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णियोंमें प्राचीन दशवैकालिकव्याख्याका 'वृत्ति' के नामसे जगह जगह उल्लेख किया है. ऊपर जिन चूर्णियोंका उल्लेख किया गया है, उनमें से प्रायः बहुत-सी चूर्णिया महाकाय हैं । इन सब चूर्णियोंके प्रणेताओके नाम प्राप्त नहीं होते हैं, फिर भी स्थविर अगसिंह, शिवनंदि वाचक, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, जिनदास महत्तर, गोपालिकमहत्तरशिष्य -इन चूर्णिकार आचायोंके नाम मिलते हैं. ___ चूर्णि-नियुक्तिओंकी रचना पिछले जमाने में बंद हो गई, किन्तु संग्रहणी, भाष्य-महाभाष्य, चूर्णिकी रचनाका प्रचार बादमें भी चालू रहा है. संस्कृत वृत्तियोंकी रचनाके बाद यद्यपि आगमों पर ऐसा कोई प्रयत्न नहीं हुआ है तो भी आगमोंके विषयोको लेकर तथा छोटे-मोटे प्रकरणों पर भाष्यमहाभाष्य-चूर्णि लिखनेका प्रयत्न चालू ही रहा है, यह आगे प्रकरणोंके प्रसंगमें मालूम होगा. ___ यहां पर जैन आगम और प्राकृत व्याख्याग्रन्थों का परिचय दिया गया है। ये बहुत प्राचीन एवं प्राकृत भाषाके सर्वोत्कृष्ट अधिकारियोंके रचे हुए हैं. प्राकृतादि भाषाओंकी दृष्टिसे ये बहुत ही महत्त्वके हैं. प्रकरण प्रकरण किसी खास विषयको ध्यानमें रखकर रचे गये हैं. मेरी दृष्टि से प्रकरणोंको तीन विभागोंमें विभक्त किया जा सकता है-तार्किक, आगमिक और औपदेशिक. तार्किक प्रकरण-आचार्य श्री सिद्धसेनका सन्मतितर्क, आचार्य श्री हरिभद्रका धर्मसंग्रहणी प्रकरण, उपाध्याय श्री यशोविजयजीकृत श्रीपूज्यलेख, तत्वविवेक, धर्मपरीक्षा आदिका इस कोटिके प्रकरणों में समावेश होता है. यद्यपि ऐसे तार्किक प्रकरण बहुत कम हैं, फिर भी इन प्रकरणोंका प्राकृत भाषाके अतिरिक्त तत्वज्ञानकी दृष्टिसे भी बहुत महत्त्व है. आगमिक प्रकरण-आगमिक प्रकरणों का अर्थ जैन आगमोंमें जो द्रव्यानुयोगके व गणितानुयोगके साथ संबन्ध रखने वाले विविध विषय हैं उनमेंसे किसी एकको पसंद करके उसका विस्तृत रूपमें निरूपण करनेवाले या संग्रह करनेवाले ग्रंथ प्रकरण हैं. ऐसे प्रकरणोंके रचनेवाले शिवशर्म, जिनभद्र क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, चन्द्रर्षि महत्तर, गर्गर्षि, मुनिचंद्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [५] जिनवल्लभगणि, अभयदेवसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, चक्रेश्वरसूरि, देवेन्द्रसूरि, सोमतिलकसूरि, रत्नशेखरसूरि, विजयविमलगणि आदि अनेक आचार्य हुए हैं. इनमेंसे आचार्य शिवशर्म, चन्द्रर्षि महत्तर, गर्गर्षि, जिनवल्लभगणि, देवेन्द्रसूरि आदि कर्मवादविषयक कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, प्राचीन कर्मग्रंथ और नव्यकर्मग्रंथ शास्त्रोंके प्रणेता हैं. इनमें भी शिवशर्मप्रणीत कर्मप्रकृति और चन्द्रषिप्रणीत पंचसंग्रह, व इनकी चूर्णि-वृत्तियाँ महाकाय ग्रंथ हैं. ये दो शास्त्र आगमकोटिके महामान्य ग्रंथ माने जाते हैं. इनके अलावा आचार्य जिनभद्रके संग्रहणी, क्षेत्रसमास, विशेषणवती, हरिभद्रसूरिके पंचाशक, विंशतिविशिका, पंचवस्तुक, उपदेशपद, श्रावकधर्मविधितंत्र, योगशतक, संबोधप्रकरण आदि, मुनिचन्द्रसूरिके अंगुलसप्तति, वनस्पतिसप्तति, आवश्यकसप्तति तथा संख्याबंधकुलक आदि, सिद्धसेनसूरिका १६०६ गाथा परिमित प्रवचनसारोद्धारप्रकरण, अभयदेवसूरिके पंचनिम्रन्थीसंग्रहणी, प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी, सप्ततिकाभाष्य, षट्स्थानक भाष्य, नवतत्त्व भाष्य, आराधनाप्रकरण, श्रीचन्द्रसूरिका संग्रहणीप्रकरण, चक्रेश्वरसूरिके ११२३ गाथा परिमित शतकमहाभाष्य, सिद्धांतसारोद्धार, पदार्थस्थापना, सूक्ष्मार्थसप्तति, चरणकरणसप्तति, सभापंचकस्वरूपप्रकरण आदि, देवेन्द्रसूरिके देववंदनादि भाष्यत्रय, नव्यकर्मग्रंथपंचक, सिद्धदंडिका, सिद्धपंचाशिका आदि, सोमतिलकसूरिका नव्य बृहत्क्षेत्रसमासप्रकरण, रत्नशेखरसूरिके क्षेत्रसमास, गुरुगुणषट्त्रिंशिका आदि प्रकरण हैं। यहाँ मुख्य मुख्य प्रकरणकार आचार्योंके नाम और उनके प्रकरणोंका संक्षेपमें दिग्दर्शन कराया गया है. अन्यथा प्रकरणकार आचार्य और इनके रचे हुए प्रकरणोंकी संख्या बहुत बड़ी है. इनमें कितनेक प्रकरणों पर भाष्य, महाभाष्य और चूणियाँ भी रची गई हैं. ___ औपदेशिक प्रकरण - औपदेशिक प्रकरण वे हैं, जिनमें मानवजीवनकी शुद्धिके लिए अनेकविध मार्ग दिखलाये गये हैं. ऐसे प्रकरण भी अनेक रचे गये हैं. आचार्य धर्मदासकी उपदेशमाला, प्रद्युम्नाचार्यका मूलशुद्धिप्रकरण, श्री शान्तिसूरिका धर्मरत्नप्रकरण, देवेन्द्रसूरिका श्राद्धविधिप्रकरण, मलधारी हेमचन्द्रसूरिका भवभावना और पुष्पमालाप्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तरका दर्शनशुद्धिप्रकरण, वर्द्धमानसूरिका धर्मोपदेशमालाप्रकरण, यशोदेवसूरिका नवपदप्रकरण, आसडके उपदेशकंदली और विवेकमंजरी प्रकरण, धर्मघोषसूरिका ऋषिमंडल प्रकरण आदि बहुतसे औपदेशिक छोटे-छोटे प्रकरण हैं, जिन पर महाकाय टीका भी रची गई हैं, जिसमें प्राकृत-संस्कृत-अपभ्रंश भाषामें अनेक कथाओंका संग्रह किया गया हैं. एक रीतिसे माना जाय तो ये टीकाएं कथा-कोशरूप ही हैं. धर्मकथा साहित्य जैनाचायोंने प्राकृत कथासाहित्यके विषयमें भी अपनी लेखनीका उपयोग काफी किया है. जैनाचायोंने काव्यमय कथाएं लिखनेका प्रयत्न विक्रम संवत् प्रारम्भके पूर्व ही शुरू किया है. आचार्य पादलिप्तकी तरंगवती, मलयवती, मगधसेना, संघदासगणि वाचक विरचित वसुदेवहिंडी, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] જ્ઞાનાંજલિ धूर्ताख्यान आदि कथाओंका उल्लेख विक्रमकी पांचवीं छठी सदीमें रचे गए भाष्यों में आता हैं. धूर्ताख्यान तो निशीथचूर्णिकारने अपनी चूर्णिमें [गा० २९६, पत्र १०२-१०५] भाष्य गाथाओंके अनुसार संक्षेपमें दिया भी है और आख्यानके अन्तमें उन्होंने “सेसं धुत्तक्खाणगाहाणुसारेण णेयमिति" ऐसा उल्लेख भी किया है. इससे पता चलता है कि प्राचीन कालमें 'धूर्ताख्यान' नमक व्यंसक कथाग्रन्थ था, जिसका आधार लेकर आचार्य श्री हरिभद्रने प्राकृत धूर्ताख्यानकी रचना की है. प्राचीन भाष्य आदिमें जिन कथा-ग्रन्थों का उल्लेख पाया जाता हैं उनमेंसे आज सिर्फ एक श्री संघदासगणिका वसुदेवहिंडी ग्रन्थ ही प्राप्त है, जो भी खण्डित है. दाक्षिण्याङ्क आचार्य श्रीउद्द्योतनसूरिने अपनी कुवलयमाला कथाकी [र० सं० शाके ७००] प्रस्तावनामें पादलिस, शालवाहन, षट्पर्णक, गुणाढ्य, विमलाङ्क, देवगुप्त, रविषेण, भवविरह, हरिभद्र आदिके नामोंके साथ उनकी जिन रचनाओंका निर्देश किया है उनमेंसे कुछ रचनाएं प्राप्त हैं, किन्तु, पादलिप्तकी तरंगवती, षट्पर्णकके सुभाषित आदि रचनाएं, गुणाढ्यकी पिशाचभाषामयी बृहत्कथा, विमलाङ्कका हरिवंश, देवगुप्तका त्रिपुरुषचरित्र आदि कृतियाँ आज प्राप्त नहीं हैं. संघदासकी वसुदेवहिंडी, धर्मसेन महत्तरका शौरसेनी भाषामय वसुदेव हिंडी द्वितीय खण्ड, विमलाङ्कका पउमचरिय, हरिभद्रसूरिकी समराइञ्चकहा, शीलाङ्क विमलमतिका चउप्पन्न महापुरिसचरिय, भद्रेश्वरकी कहावली आदि प्राचीन कथाएं आज प्राप्त हैं. ये सब रचनाएं विक्रमकी प्रथम सहस्राब्दीमें हुई हैं. इनके बादमें अर्थात् विक्रमको बारहवीं शताब्दीमें चौवीस तीर्थंकरोंके चरित्र आदि अनेक चरितोंकी रचना हुइ है, जो अनुमानतः दो-तीन शताब्दियों में हुई है. वर्धमानसूरि-आदिनाथचरित्र और मणोरमा कहा, सोमप्रभाचार्य-सुमतिनाथ चरित्र और कुमारपाल. प्रतिबोध, गुणचंद्रसूरि अपरनाम देवभद्रसूरि-पार्श्वनाथचरित, महावीरचरिय और कहारयणकोस, लक्ष्मणगणि-सुपासनाहचरिय, बृहद्गच्छीय हरिभद्रसूरि-चन्द्रप्रभचरित्र और नेमिनाहचरिउ अपभ्रंश, देवसूरि-पद्मप्रभचरित, अजितदेवसूरि---श्रेयांसचरित, देवचन्द्रसूरि---शान्तिनाथचरित्र और मूलशुद्धिप्रकरणटीका, नेमिचन्द्रसूरि—अनन्तनाथचरित्र और महावीरचरित्र, श्रीचन्द्रसूरिमुनिसुव्रतस्वामिचरित और कुंथुनाथचरित्र, पद्मप्रभसूरि--मुनिसुव्रतचरित्र, मलधारी हेमचन्द्रसूरिअरिष्टनेमिचरित्र, (भवभावनावृत्त्यन्तर्गत), रत्नप्रभसूरि-अरिष्टनेमिचरित, यशोदेवसूरि-चन्द्रप्रभ चरित, चन्द्रप्रभोपाध्याय-वासुपूज्यचरित्र, श्रीचन्द्रप्रभसूरि-विजयचन्द्र केवलिचरित्र, शान्तिसूरिपृथ्वीचन्द्रचरित्र, विजयसिंहसूरि-भुवनसुन्दरीकहा, धनेश्वर-सुरसुन्दरीकहा आदि प्राकृत कथा-चरितग्रन्थ प्रायः महाकाय ग्रन्थ हैं और विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दीमें ही रचे गये हैं. इनके अतिरिक्त दूसरी भी दशश्रावकचरित, वर्द्धमानदेशना, शालिभद्रादि चरित, ऋषिदत्ताचरित, जिनदत्ताख्यान, कलावईचरिय, दवदंतीकहा, सुसढकहा, मणिवइचरिय, सणंकुमारचरिय, तरंगवती-संक्षेप, सीयाचरिय, सिरिवालकहा, कुम्मापुत्तचरिय, मौनएकादसीकहा, जम्बूसामिचरिय, कालिकाचार्यकथा, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [५3 सिद्धसेनाचार्यादि प्रबंध आदि अनेक छोटी-मोटी प्राकृत रचनाएं प्राप्त होती हैं. ये स्वतन्त्र साधुचरित स्त्री-पुरुषके कथाचरित होने पर भी इनमें प्रसंग-प्रसंग पर अवान्तर कथाएं काफी प्रमाणमें आती हैं. इन महाकाय कथा-चरितोंकी तरह संक्षिप्त कथाचरितके संग्रहरूप महाकाय कथाकोशोंकी रचना भी बहुत हुई है. वे रचनाएं भद्रेश्वरसूरिकी कहावली, जिनेश्वरसूरिका कथाकोश, नेमिचन्द्र-आम्रदेवसूरिका आख्यानकमणिकोश, धर्मघोषका ऋषिमण्डलप्रकरण, भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति आदि हैं. अपभ्रंशमें श्वेताम्बर जैन संप्रदायमें महाकवि धनपालका सत्यपुरमहावीरस्तोत्र, धाहिलका पउमसिरिचरिउ, जिनप्रभसूरिका वइरसामिचरिउ आदि छोटी-छोटी रचनाएं बहुत पाई जाती हैं, किन्तु बड़ी रचनाएं श्री सिद्धसेनसूरि अपरनाम साधारण कविकृत विलासवई कहा [अं० ३६२०, रचना सं० ११२३] और हरिभद्रसूरिका नेमिनाहचरिउ [ग्रंथाग्र ८०३२, रचना सं० १२१६] ये दो ही देखनेमें आती हैं. आचार्य श्री हेमचन्द्रने सिद्धहेमचन्द्र व्याकरण-अष्टमाध्यायमें प्राकृतादि भाषाओंके साथ अपभ्रंश भाषाओंको शामिल किया है, फिर भी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अपभ्रंश भाषाका प्रयोग विशेष नहीं हुआ है. सामान्यतया श्वेताम्बर आचार्योंने अपने ग्रन्थों में सुभाषित और प्रसंगागत कथाओंके लिए इस भाषाका उपयोग किया है. मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, भवभावनाप्रकरणवृत्ति, आख्यानकमणिकोशवृत्ति, उपदेशमाला दोघटिवृत्ति, कुमारपालप्रतिबोध आदिमें अपभ्रंश कथाएं आती हैं, जो दो सौ-चार सौ श्लोकसे अधिक परिमाण वाली नहीं होती हैं. दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें इससे विपरीत बात है. दिगम्बर आचार्योंने धर्मकथाओंके लिए प्राकृत-मागधीके स्थानमें अपभ्रंश भाषाका ही विशेष रूपसे उपयोग किया है. दिगम्बरसम्प्रदायमें शास्त्रीय ग्रन्थोंके लिए प्राचीन आचार्योंने शौरसेनी भाषाका बहुत उपयोग किया है. उन्होंने अतिमहाकाय माने जाएँ ऐसे धवल, जयधवल, महाधवल शास्त्रोंकी रचना की है. समयसार, पंचास्तिकाय आदि सैकड़ों शास्त्र भी शौरसेनी में लिखे गये हैं. जैनस्तुति स्तोत्रादि ___ जैनाचार्योंने स्तुति-स्तोत्रादि साहित्य काफी लिखा है. फिर भी प्रमाणकी दृष्टि से देखा जाय तो प्राकृत भाषामें वह बहुत ही कम है. आचार्य पादलिप्त, आचार्य अभयदेव, देवभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभ आदिका समग्र स्तुतिस्तोत्रादि साहित्य एकत्र किया जाय तो, मेरा अनुमान है कि, वह दो-चार हजार श्लोकोंसे अधिक नहीं होगा. इन स्तोत्रोंमें यमक, समसंस्कृत प्राकृत, षड्भाषामय स्तोत्रोंका समावेश कर लेना चाहिए. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] જ્ઞાનાંજલિ व्याकरण व कोश प्राकृतादि भाषाओंके व्याकरणों एवं देशी आदि कोशोंका विस्तृत परिचय प्राकृत भाषाके पारंगत डॉ० पिशलने अपने 'कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ दी प्राकृत लेंग्वेजेज' ग्रन्थमें पर्याप्त मात्रा में दिया है, अतः मैं विशेष कुछ नहीं कहता हूं. इस युगमें महत्त्वपूर्ण चार प्राकृत शब्दकोश जैन विद्वानोंने तैयार किये हैं : १. त्रिस्तुतिक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिका अभिधानराजेन्द्र. २. पंडित हरगोविंददासका पाइयसद्दमहण्णवो. ३. स्थानकवासी मुनिश्री रत्नचन्द्रजीका पांच भागोंमें प्रकाशित अर्धमागधी कोश. ४. श्री सागरानन्दसूरिका अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश. काव्य और सुभाषित प्राकृत भाषामें रचित प्रवरसेनके सेतुबंध महाकाव्य, वाक्पतिराजके गउडवहो, हेमचन्द्रके प्राकृत याश्रय महाकाव्य आदिसे आप परिचित हैं ही. सेतुबंध महाकाव्यका उल्लेख निशीथसूत्रकी चूर्णिमें भी पाया जाता है. महाकवि धनपालने (वि० ११वीं शती) अपनी तिलकमंजरी आख्यायिकामें सेतुबंध महाकाव्य व वाक्पतिराजके गउडवहोकी स्तुतिजितं प्रवरसेनेन रामेणेव महात्मना । तरत्युपरि यत् कीर्तिसेतुर्वाङ्मयवारिधेः ॥ । दृष्ट्वा वाक्पतिराजस्य शक्ति गौडवघोबुराम् । बुद्धिः साध्वसरुद्धव वाचं न प्रतिपद्यते॥३१॥ इन शब्दोंमें की है. इसी कविने अपनी इस आख्यायिकामें प्राकृतेषु प्रबन्धेषु रसनिष्यन्दिभिः पदैः । __ राजन्ते जीवदेवस्य वाचः पल्लविता इव ॥२४॥ इस प्रकार आचार्य जीवदेवकी प्राकृत कृतिका उल्लेख किया है, जो आज उपलब्ध नहीं है. आचार्य दाक्षिण्यांक श्रीउद्योतनको कुवलयमालाकहा प्राकृत महाकाव्यकी सर्वोत्कृष्ट रसपूर्ण रचना है. हाल कविकी गाथासप्तशती, वजालग आदिको सभी जानते हैं. इसी प्रकार लक्ष्मण कविका गाथाकोश भी उपलब्ध है. समयसुन्दरका गाथाकोश भी मुद्रित हो चुका है. बहट्टिप्पनिकाकारने " सुधाकलशाख्यः सुभाषितकोशः पं० रामचन्द्रकृतः" इस प्रकार श्री हेमचन्द्रके शिष्य रामचन्द्रके सुभाषितकोशका नामोल्लेख किया है, जो आज अलभ्य है. __ ऊपर जिन कथा-चरितादि ग्रंथोंके नाम दिये हैं, उन सबमें सुभाषितोकी भरमार है. यदि इन सबका विभागशः संग्रह और संकलन किया जाय तो प्राकृत भाषा का अलंकार स्वरूप एक बड़ा भारी सुभाषित भण्डार तैयार हो सकता है. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય अलंकारशास्त्र जैसलमेर के श्री जिनभद्रीय ताडपत्र ज्ञानभंडार में प्राकृत भाषामें रचित अलंकारदर्पण नामक एक अलंकार ग्रंथ है, जिसके प्रारंभमें ग्रंथकारने : सुंदरपयविण्णासं बिमलालंकार रेडिअसरीरं । सुइदेविअं च कव्वं च पणविअं पवरषण्णड्ढं ॥३॥ इस आर्या में 'श्रुतदेवता' को प्रणाम किया है. इससे प्रतीत होता है कि यह किसी जैनाचार्य की कृति है. इसका प्रमाण १३४ आर्या हैं तथा यह हस्तप्रति विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लिखी प्रतीत होती है. | नाटक व नाट्यशास्त्र राजा आदि उच्च वर्गके व्यक्तियोंको छोड़ कर नाटकोंमें शेष सभी पात्र प्राकृत भाषाका ही प्रयोग करते हैं. यदि हिसाब लगाया जाय तो पता लगेगा कि सब मिलाकर नाटकों में संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृत अधिक नहीं तो कम भी प्रयुक्त नहीं हुई है. अतएव प्राकृत भाषाके साहित्यको चर्चा में नाटकोंको भुलाया नहीं जा सकता. स्वतंत्ररूपसे लिखे गये नाटकोंसे तो आप परिचित हैं ही, किंतु कथाग्रंथोके अन्तर्गत जो नाटक आये हैं उन्हींकी विशेष चर्चा यहां अभीष्ट है. प्रसंगवशात् यह भी कह दूँ कि आवश्यक चूर्णिमें प्राचीन जैन नाटकोंके होनेका उल्लेख है. शीलांकके चउप्पन्न-महापुरिस चरियमें ( वि० १० वीं शती) विबुधानंद नामक एकांकी नाटक है. देवेन्द्रसूरिने चन्द्रप्रभचरितमें वज्रायुध नाटक लिखा है. आचार्य भद्रेश्वर ने कहावलीमें व देवेन्द्रसूरिने कहारयणकोसमें नाटकाभास नाटक दिये हैं. ये सब कथाचरितान्तर्गत नाटक हैं स्वतंत्र नाटकोंकी रचना भी जैनाचार्योंने काफी मात्रामें की हैं. श्री देवचन्द्रमुनिके चंद्रलेखाविजयप्रकरण, विलासवतीनाटिका और मानमुद्राभंजन ये तीन नाटक हैं. मानमुद्राभंजन अभी अप्राप्य है. यशवन्द्रका मुद्रित कुमुदचंद्र और राजीमती नाटिका, यशःपालका मोहराजपराजय, जयसिंहरिका हम्मीरमदमर्दन, रामभद्रका प्रबुद्ध रौहिणेय, मेघप्रभका धर्माभ्युदय व बालचंद्रका करुणावज्रायुधनाटक प्राप्त हैं. रामचंद्रसूरिके कौमुदीमित्राणंद, नलविलास, निर्भयभीमव्यायोग, मल्लिकामकरन्द, रघुविलास व सत्यहरिश्चन्द्रनाटक उपलब्ध हैं; राघवाभ्युदय यादवाभ्युदय, यदुविलास आदि अनुपलब्ध हैं. इन्होंने नाटकोंके अलावा नाट्यविषयक स्वोपज्ञटीकायुक्त नाट्यदर्पणको भी रचना की है. इसके प्रणेता रामचंद्र व गुणचंद्र दो हैं. इन दोनोंने मिलकर स्वोपज्ञटीकायुक्त द्रव्यालंकारकी भी रचना की है. नाट्यदर्पणके अतिरिक्त रामचंद्रका नाट्यशास्त्रविषयक 'प्रबंधरात ' नामक अन्य ग्रंथ भी था जो अनुपलब्ध है. यद्यपि बहुत से विद्वान् ' प्रबंधशत' का अर्थ 'चिकीर्षित सौ ग्रंथ' ऐसा करते हैं, किन्तु प्राचीन ग्रंथसूचीमें " रामचंद्रकृतं प्रबंधशतं द्वादशरूपकनाटकादि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९] જ્ઞાનાંજલિ स्वरूपज्ञापकम् " ऐसा उल्लेख मिलता है. इससे ज्ञात होता है कि 'प्रबंधशत' नामकी इनको कोई नाट्यविषयक रचना थी. इनके अतिरिक्त ज्योतिष, रत्नपरीक्षा शास्त्र, अंगलक्षण, आयुर्वेद आदि विषयक प्राकृत ग्रंथ मिलते हैं. आयुर्वेदविषयक एक प्राकृत ग्रंथ मेरे संग्रहमें है, जिसका नाम ' योगनिधान' है. पं० अमृतलालके संग्रहमें प्राकृतभाषामें रचित कामशास्त्रका 'मयणमउड' नामक ग्रंथ भी है. यहां पर मैंने आगम और उनको व्याख्यासे प्रारंभ कर विविध विषयोंके महत्त्वपूर्ण प्राकृत वाङ्मयका अतिसंक्षिप्त परिचय देनेका प्रयत्न किया है. इससे आपको पता लगेगा कि-प्राकृत भाषामें कितना विस्तृत एवं विपुल साहित्य है और विद्वानोंने इस भाषाको समृद्ध करनेके लिए क्या क्या नहीं लिखा ? अपने-अपने विषयकी दृष्टिसे तो इस समग्र साहित्यका मूल्य है ही, किन्तु इस वाङ्मयमें जो सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक विपुल सामग्री भरी पड़ी है, उसका पता सटीक बृहत्कल्पसूत्र, निशिथचूर्णि, अंगविजा, चउपन्नमहापुरिसचरियं आदिके परिशिष्टोंको देखनेसे लग सकता है. प्राकृत भाषा और उसके सर्वांगीण कोशकी सामग्री इस वाङ्मयमेंसे ही पर्याप्त मात्रामें प्राप्त हो सकती है. पूर्वोक्त प्राकृत कोशोमें नहीं आये हुए हजारों शब्द इस वाङ्मयसे प्राप्त हो सकते हैं. इसी तरह आचार्य हेमचंद्रकी देसी नाममाला' में असंग्रहीत सैकडों देशी शब्द इस वाङ्मयमें दिखाई देते हैं. इसके लिए विद्वानोंको इसी वर्ष प्रकाशित डॉ० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित प्राकृत कुवलयमाला एवं पं० अमृतलाल भोजक द्वारा संपादित 'चउपनमहापुरिसचरियं' की प्रस्तावना एवं शब्दकोशोंका परिशिष्ट देखना चाहिए. मेरा मत है कि ---- भविष्यमें प्राकृत भाषाके सर्वांगीण कोशके निर्माताओं को यह समग्र वाङ्मय देखना होगा; यही नहीं अपितु संस्कृत भाषाके कोशके निर्माताओंको भी यह वाङ्मय देखना व शब्दोंका संग्रह करना अति आवश्यक है. इसका कारण यह है कि --प्राकृत व संस्कृत भाषाको अपनाने वाले विद्वानोंका चिरकालसे अति नैकट्य रहा है। इतना ही नहीं अपितु जो प्राकृत वाङ्मयके निर्माता रहे हैं वे ही संस्कृत वाङ्मयके निर्माता भी रहे हैं. अतः दोनों कोशकारोंको एक-दूसरा साहित्य देखना आवश्यक है. अन्यथा दोनों कोश अपूर्ण ही होंगे. इस आगमादि साहित्यसे विद्वानोंको आन्तरिक व बाह्य अथवा पारमार्थिक व व्यावहारिक जीवनके साथ संबंध रखनेवाले अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है. यद्यपि भारतीय आर्य ऋषि, मुनि एवं विद्वानोंका मुख्य आकर्षण हमेशा धार्मिक साहित्यकी ओर ही रहा है, तथापि इनकी कुशलता यही है कि -- इन्होंने लोकमानसको कभी भी नहीं ठुकराया, इसीलिए इन्होंने प्रत्येक विषयको लेकर साहित्यका निर्माण किया है. साहित्यका कोई अंग इन्होंने छोड़ा नहीं है। इतना ही नहीं अपितु अपनी धर्मकथाओंमें भी समय-समय पर साहित्यके विविध अंगोंको याद किया है. यही कारण है Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય [५७ कि ---- अपनी प्राचीन धर्मकथाओंमें धार्मिक सामग्रीके अतिरिक्त लोकयवहारको स्पर्श करनेवाले अनेक विषय प्राप्त होते हैं. उदाहरगके तौर पर कथा-साहित्यमें राजनीति, रत्नपरीक्षा, अंगलक्षण, स्वप्नशास्त्र, मृत्युज्ञान आदि अनेक विषय आते हैं. पुत्र-पुत्रियोंको पठन, विवाह, अधिकारप्रदान, परदेशगमन आदि अनेक प्रसंगों पर शिक्षा, राजकुमारों को युद्धगमन, राज्यपदारोहण आदि प्रसंगों पर हितशिक्षा, पुत्र-पुत्रियोंके जन्मोत्सव, झुलाने, विवाह आदि करने का वर्णन, ऋतुवर्णन, वनविहार, अनंगलेख धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अलंकारशास्त्र, साहित्यचर्चा आदि विविध प्रसंग; साहूकारोंका वाणिज्य व्यापार, उनकी पद्धति, उनके नियम, भूमि व समुद्रमें वाणिज्यके लिए जाना, भूमि व समुद्र के वाहन, व जहाजके प्रकार, तद्विषयक विविध सामग्री, जीवनके सद्गुण-दुर्गुण, नीति-अनीति, सदाचार-दुराचार आदिका वर्णन-इत्यादि सैकड़ों विषयोंका इस साहित्यमें वर्णन है. ये सभी सांस्कृतिक साधन है. वसुदेवहिंडी प्रथम खंड(पत्र १४५)में चारुदत्तके चरितमें चारुदत्तकी स्थल संबंधी व सामुद्रिक व्यापारिक यात्राका अतिरसिक वर्णन है जिसमें देश-विदेशोंका परिभ्रमण; सूत्रकृतांगकी मार्गाध्ययन-नियुक्ति में (गा० १०२) वर्णित शंकुपथ, अजपथ, लतामार्ग आदिका निर्देश किया गया है. इसमें यात्राके साधनोंका भी निर्देश है. परलोकसिद्धि, प्रकृति-बिचार, वनस्पतिमें जीवत्वकी सिद्धि, मांसभक्षणके दोष आदि अनेक दार्शनिक धार्मिक विषय भी पाये जाने हैं. इसी वसुदेवहिंडौके साथ जुड़ी हुई धम्मिल्लहिंडीमें "अत्थसत्थे य भणियं - 'विसे सेण मायाए सत्येण य हंतत्वो अप्पणो विवड्ढमाणो सत्तु' त्ति” (पृ. ४५) ऐसा उल्लेख आता है जो बहुत महत्त्वका है. इससे सूचित होता है कि --- प्राचीन युगमें अपने यहां प्राकृत भाषामें रचित अर्थशास्त्र था. श्रीद्रोणाचार्यने ओघनियुक्ति में "चाणकए वि भणियं --- 'जइ काइयं न वोसिरइ तो अदोसो' ति" (पत्र १५२-२) ऐसा उल्लेख किया है. यह भी प्राकृत अर्थशास्त्र होनेकी साक्षी देता है, जो आज प्राप्त नहीं है. इसी ग्रंथमें पाकशास्त्रका उल्लेख भी है जिसका नाम पोरागमसत्थ दिया है. आजके युगमें प्रसिद्ध प्रिन्स ऑफ वेल्स, किन मेरी, ट्युटानिया आदि जहाजोंके समान युद्ध, विनोद, भोग आदि सब प्रकारकी सामग्रोसे संपन्न राजभोग्य एवं धनाढयोंके योग्य समृद्ध जहाजोंका वर्णन प्राकृत श्रीपालचरित आदिमें मिलता है. रत्नप्रभसूरिविरचित नेमिनाथचरितमें अलंकारशास्त्रको विस्तृत चर्चा आती है. प्रहेलिकाए, प्रश्नोत्तर, चित्रकाव्य आदिका वर्णन तो अनेक कथाग्रंथोमें पाया जाता है. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रकी अर्थदीपिका वृत्तिमें (पृ० १२७) मंत्रीपुत्रीकथानकमें किसी वादीने मंत्रीपुत्रीको ५६ प्रश्नोका उत्तर प्राकृत भाषामें चार अक्षरोंमें देनेका वादा किया है. मंत्रीपुत्रीने भी 'परवाया' इन चार अक्षरों में उत्तर दिया है. ऐसी क्लिष्टातिक्लिष्ट पहेलियाँ भी इन कथाग्रंथों में पाई जाती हैं. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનાંજલિ ―――― संक्षेप में कहना यही है कि - प्राकृतके इस वाङ्मय में विपुल ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सामग्री मिल सकती है. यदि इसका पृथकरण किया जाय तो बहुत महत्वको सामग्री एकत्र हो सकती है. प्राकृतादि भाषाएं ५८ ] जहाँ आज तक पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानोंने प्राकृत भाषाके विषय में पर्याप्त विचार किया हो, विशेषतः प्राकृतादि भाषाके प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० पिशल महाशयने वर्षों तक इन भाषाओंका अध्ययन करके और चारों दिशाओंके तत्तद्विषयक सैकड़ों ग्रन्थों का अवलोकन, अध्ययन, परिशीलन, चिन्तन आदि करके प्राकृत आदि भाषाओंका महाकाय व्याकरण तैयार किया हो वहाँ इस विषय में कुछ भी कहना एक दुस्साहस ही है. मैं कोई प्राकृतादि भाषाओका पारप्राप्त विद्वान् नहीं हूँ, फिर भी प्राकृत आदि भाषा एवं साहित्यके अभ्यासी विद्यार्थीको हैसियतसे मुझे जो तथ्य प्रतीत हुए हैं उतको मैं आपके सामने रखता हूँ. प्राकृत आदि भाषाओंके विद्वानोंने १ प्राचीन व्याकरण २ प्राचीन ग्रन्थोंमें आनेवाले प्राकृत भाषाके संक्षिप्त लक्षण और ३ प्राचीन ग्रन्थोंमें आनेवाले प्राकृत भाषाओंके प्रयोगों को धमान में रखकर प्राकृतादि भाषाओंके विषयमें जो विचार और निर्णय किया है वह पर्याप्त नहीं है. इसके कारण ये हैं १. व्याकरणकारोंका उद्देश्य भाषाको नियमबद्ध करनेका होता है, अतः वे अपने युगके प्रचलित सर्वमान्य तत्तद् भाषाप्रयोगों एवं तत्संवादो प्राचीन मान्य ग्रंथोके प्रयोगोंकी अपनी दृष्टिसे तुलना करके व्याकरणका निर्माण करते हैं. खास कर उनकी दृष्टि अपने युगको ओर ही रहती है. आज के व्याकरणो को देखकर हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं. अतः इन व्याकरणोंसे प्राचीन युगकी भाषाका पूर्ण पता लगाना असंभव है. ――― २. प्राचीन व्याख्याग्रन्थ आदिमें अर्धमागधी आदिके जो एक-दो पंक्तियोंमें लक्षण पाये जाते उनसे भी प्राकृत भाषाओंके वास्तविक स्वरूपका पता लगाना पर्याप्त नहीं है. डॉ० पिशलने अर्धमागधी और मागधोके विषय में जैन व्याख्यानकारोंके अनेक उल्लेखों को दे कर प्रमाणपुरस्सर विस्तृत चर्चा की है. उसमें मैं इतनी पूर्ति करता हूँ कि -- स्वर व्यञ्जनोंके परिवर्तन और विभक्तिप्रयोग आदिके अतिरिक्त तत्कालीन भिन्न-भिन्न प्रान्तीय (जहाँ भगवान् महावीर और उनके निर्ग्रन्थोंने विहार, धर्मोपदेश आदि किया था) शब्दों का स्वीकार या मिश्रण भी अर्धमागधीका लक्षण होनेकी सम्भावना है. जैन निर्ग्रन्थों को विहार- पादभ्रमण, भिक्षा, धर्मोपदेश, तत्तत्प्रान्तीय शिष्य-प्रशिष्योंके अध्ययन-अध्यापन आदिके निमित्त तत्तद्देशीय जनता के संपर्क में रहना पड़ता है. अतः इनकी भाषामें सहज ही भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषाओंके स्वर यञ्जनपरिवर्तन, विभक्ति-कारक आदिके प्रयोगोंके साथ प्रान्तीय शब्दप्रयोग भी आ जाते हैं. भाषाका इस प्रकारका प्रभाव प्राचीन युगकी तरह आजके जैन निर्ग्रन्थोंकी भाषा में भी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમવાર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય (૫૯ देखा जाता है. जैन आगमोंके नियुक्ति भाष्य-चूर्णि आदिमें अनेक स्थानों पर एकार्थक शब्द दिये जाते हैं और वहाँ कहा भी जाता है कि---"भिन्न-भिन्न देशोंमें रहनेवाले शिष्यों को मतिभ्रम न हो इस लिए एकार्थक शब्द दिये हैं". इस उल्लेखसे भी यही प्रतीत होता है कि--अर्धमागधीका स्वरव्यञ्जनादि परिवर्तन आदिके अतिरिक्त 'तत्तत्प्रान्तीय भाषाओं के शब्दोंका संग्रह ' यह भी एक प्रमुख लक्षण है. ३. वास्तव में प्राकृत भाषाओंके प्राचीन ग्रन्थ ही इन भाषाओके पृथक्करणके लिये अकाट्य साधन हैं और सचमुच ही उपर्युक्त दो साधनोंकी अपेक्षा यह साधन ही अतिउपयुक्त साधन है. इसका उपयोग डॉ० पिशल आदि विद्वानोंने अतिसावधानीसे किया भी है, तथापि मैं मानता हूँ कि वह अपर्याप्त है. क्योंकि डॉ० पिशल आदिने जिस विशाल साहित्यका उपयोग किया है वह प्रायः अर्वाचीन प्रतियोंके आधार पर तैयार किया गया साहित्य था जिसमें भाषाके मौलिक स्वरूप आदिका काफी परिवर्तन हो गया है. इसी साहित्य की प्राचीन प्रतियों को देखते हैं तब भाषा और प्रयोगोंका महान् वैलक्षण्य नजर आता है. खुद डॉ० पिशल महाशयने भी इस विषयका उल्लेख किया है. दूसरी बात यह है कि---डॉ० पिशल आदि विद्वानोंने ऐतिहासिक तथ्यके आधार पर जिनमें प्राकृत भाषाप्रवाहोंके मौलिक अंश होनेकी अधिक संभावना है और जो प्राकृत भाषाओंके स्वरूपनिर्णयके लिये अनिवार्य साधनकी भूमिकारूप हैं ऐसे प्राचीनतम जैन आगमोंका जो प्राचीन प्राकृतव्याख्या साहित्य है उसका उपयोग बिलकुल किया ही नहीं है. ऐसा अति प्राचीन श्वेतांबरीय प्राकृत व्याख्यासाहित्य जैन आगमोंकी नियुक्ति-भाष्य-महाभाष्य-चूर्णियां हैं और इतर साहित्यमें कुवलयमालाकहा, वसुदेवहिंडी, चउप्पन्नमहापुरिसचरियं आदि हैं, तथा दिगंबरीय साहित्यमें धवल, जयधवल, महाधवल, तिलोयपण्णत्ती आदि महाशास्त्र हैं. यद्यपि दिगंबर आचार्योंके ग्रन्थ ऐतिहासिक तथ्यके आधार पर श्वेतांबर जैन आगमादि ग्रन्थों की अपेक्षा कुछ अर्वाचीन भी हैं तथापि प्राकृत भाषाओंके निर्णयमें सहायक जरूर हैं. मुझे तो प्रतीत होता है कि--प्राकृत भाषाओंके विद्वानोंको प्राकृत भाषाओंको व्यवस्थित करनेके लिये डॉ० पिशलके प्राकृतव्याकरणकी भूमिकाके आधार पर पुनः प्रयत्न करना होगा. यहाँ पर जिस नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-कथाग्रन्थ आदि श्वेतांबर-दिगंबर साहित्यका निर्देश किया है वह अतिविस्तृत प्रमाणमें है और इसके प्रणेता स्थविर केवल धर्मतत्त्वोंके ही ज्ञाता थे ऐसा नहीं किन्तु वे प्राकृत भाषाओके भी उत्कृष्ट ज्ञाता थे. प्राचीन प्राकृत भाषाओंकी इनके पास मौलिक विरासत भी थी. जैन आगमोकी मौलिक भाषा अर्धमागधी कही जाती है. उसके स्वरूपका पता लगाना आज शक्य नहीं है. इतना ही नहीं किन्तु वलभीमें आगमोंका जो अन्तिम व्यवस्थापन हुआ उस समय भाषाका स्वरूप क्या था, इसका पता लगाना भी माज कठिन है. इसका कारण यह है कि---आज Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] જ્ઞાનાંજલિ हमारे सामने उस समयकी या उसके निकटके समयकी जैन आगमोंकी एक भी प्राचीन हस्तप्रति विद्यमान नहीं है. इस दशामें भी आज हमारे सामने आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक आदि आगमोंकी चूर्णियाँ और कुछ जैन आगमोंके भाष्य-महाभाष्य ऐसे रह गये हैं जिनके आधार पर वलभीपुस्तकालेखनके युगकी भाषा और उसके पहलेके युगकी भाषाके स्वरूपके निकट पहुँच सकते हैं. क्योंकि इन चूर्णियोंमें मूलसूत्रपाठको चूर्णिकारोंने व्याख्या करनेके लिये प्रायः अक्षरश: प्रतीकरूपसे उद्धृत किया है. जो भाषाके विचार और निर्णयके लिये बहुत उपयोगी है. कुछ भाष्य महाभाष्य और चूणियां ऐसी भी आज विद्यमान हैं जो अपने प्राचीन रूपको धारण किये हुए हैं. वे भी भाषाके विचार और निर्णयके लिये उपयुक्त हैं. इसके अतिरिक्त प्राचीन चूर्णि आदि व्याख्याग्रन्थों में उद्धरणरूपसे उद्धृत जैन आगम और सन्मति, विशेषणवती, संग्रहणी आदि प्रकरणोंके पाठ भी भाषाके विचारके लिये साधन हो सकते हैं. आचार्य श्री हेमचन्द्रने प्राचीन प्राकृतव्याकरण एवं प्राचीन प्राकृत वाङ्गमयका अवलोकन करके और देशी धातुप्रयोगोंका धात्वादेशोंमें संग्रह करके जो अतिविस्तृत सर्वोत्कृष्ट प्राकृत भाषाओंके व्याकरणकी रचना की है वह अपने युगके प्राकृत भाषाके व्याकरण और साहित्यिक भाषाप्रवाहको लक्ष्यमें रखकर ही की है. यद्यपि उसमें कहीं-कहीं जैन आगमादि साहित्यको लक्ष्यमें रखकर कुछ प्रयोगों आदिकी चर्चा की है तथापि वह बहुत हो अल्प प्रमाणमें है. इस बात का निर्देश मैंने साराभाई नवाब-अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित कल्पसूत्रकी प्रस्तावनामें [पृ० 14-15) किया भी है. आचार्य श्रीहेमचन्द्रने जैन आगम आदिकी भाषा और प्रयोगों के विषयमें विशेष कुछ नहीं किया है तो भी उन्होंने अपने व्याकरणमें जैन आगमोंके भाष्य आदिमें आनेवाले कुछ व्यापक प्रयोगोंका और युष्मद्-अस्मद् आदि शब्दों एवं धातुओंके रूपोंका संग्रह जरूर कर लिया है. डॉ० पिशलने कई रूप भाष्य-चूणियोंमें नजर आते हैं. इस दृष्टिसे प्राकृत भाषाओके विद्वानोंको ये ग्रन्थ देखना अत्यावश्यक है. इन ग्रन्थोंमें कई प्रकारके स्वर-व्यञ्जनके विकार वाले प्रयोग, नये-नये शब्द एवं धातु, नये-नये शब्द-धातुओंके रूप, आजके व्याकरणोंसे सिद्ध न होनेवाले आर्ष प्रयोग और नये-नये देशीशब्द पाये जाते हैं जिनका उल्लेख पिशलके व्याकरणमें नहीं हुआ है. व्याकरण, देशीनाममाला आदि शास्त्र रचने वालों की अमुक निश्चित मर्यादा होती है, इस परसे उनके जमानेमें अमुक शब्द, धातुप्रयोग आदि नहीं थे या उनके खयालमें अमुक नहीं आया था, यह कहना या मान लेना संगत नहीं. डॉ. पिशलने 'खंभ' शब्दका निष्पादन वेदमें आनेवाले 'स्कंभ' शब्दसे किया है. इस विषयमें पिशलके लगा' इत्यादि लिखा है, यह उनका पिशलके व्याकरणका हिंदी अनुवाद करनेके आनन्दका भावावेश मात्र है. हमेशा युग-युगमें साहित्यनिर्माणका अलग-अलग प्रकारका तरीका होता है. उसके Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [61 अनुसार ही साहित्यकी रचना होती है. आजका युग ऐतिहासिक परीक्षणको आधारभूत मानता है, प्राचीन युग साम्प्रदायिकताको आधारभूत मानकर चलता था. आजके युगके साधन व्यापक एवं सुलभ हैं। प्राचीन युगमें ऐसा नहीं था. इन बातोंको ध्यानमें रखा जाय तो वह युग और उस युगके साहित्यके निर्माता लेश भी उपालम्भ या आक्षेपके पात्र नहीं हैं. अगर देखा जाय तो साधनोंकी दुर्लभताके युगमें प्राचीन महर्षि और विद्वानोंने कुछ कम कार्य नहीं किया है. पिशलके व्याकरणके हिंदी अनुवादक श्रीयुक्त जोषीजीको पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानोंकी विपुल विचारसामग्रीमेंसे प्राकृत भाषाओंके सम्बन्धमें ज्ञातव्य कोई लेखादि नजरमें नहीं आया, सिर्फ उनकी नजरमें विदुषी श्रीमती डोल्ची नित्तिके ग्रन्थका आचार्य श्री हेमचन्द्र एवं डॉ० पिशलके व्याकरणको अतिकटु टीका जितना अंश ही नजरमें आया है जिसका साराका सारा हिन्दी अनुवाद आमुखमें उन्होंने भर दिया है जो पिशलके व्याकरणके साथ असंगत है. एक ओर जोषीजी स्वयं डॉ. पिशलको प्राकृतादि भाषाओंके महर्षि आदि विशेषण देते हैं और दूसरी ओर डोल्ची नित्तिके लेखका अनुवाद देते हैं जो प्राकृत भाषाके विद्वानोंको समग्रभावसे मान्य नहीं है, यह बिलकुल असंगत है. एक दृष्टि से ऐसा कहा जा सकता है कि-श्रीयुक्त जोशीजीने ऐसा निकृष्ट कोटिका आमुख, जिसमें आप प्राकृत भाषाओं के विषयमें ज्ञातव्य एक भी बात लिख नहीं पाये हैं,--लिख कर अपने पाण्डित्यपूर्ण अनुवादको एवं इस प्रकाशनको दूषित किया है. डॉ० पिशलका 'प्राकृत भाषाओंका व्याकरण' जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ० हेमचन्द्र जोषी डी० लिट्ने किया है और जो विहार राष्ट्र भाषा परिषद की ओरसे प्रकाशित हुआ है. उसमें अनुवादक और प्रकाशकोंने बहुत अशुद्ध छपनेके लिये खेद व्यक्त किया है और विस्तृत शुद्धिपत्र देनेका अनुग्रह भी किया है तो भी परिषद्के मान्य कुशल नियामकोंसे मेरा अनुरोध है कि 68 पन्नोका शुद्धिपत्र देने पर भी प्राकृत प्रयोग और पाठोंमें अब भी काफी अशुद्धियां विद्यमान है, खास कर जैन आगमों के प्रयोगों और पाठोंकी तो अनर्गल अशुद्धियां रही हैं. इनका किसी जैन आगमज्ञ और प्राकृत भाषाभिज्ञ विद्वानसे परिमार्जन विना कराये इसका दूसरा संस्करण न निकाला जाय. शब्दोकी सूचीको कुछ विस्तृत रूप दिया जाय एवं ग्रन्थ और ग्रन्थकारोके नामोंके परिशिष्ट भी साथमें दिये जायँ. अन्तमें अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए आप विद्वानोंसे अभ्यर्थना करता हूँ कि ---- मेरे बक्तव्यमें अपूर्णता रही हो उसके लिये क्षमा करें. साथ ही मेरे वक्तव्यको आप लोगोंने शान्तिपूर्वक सुना है इसके लिये आपको धन्यवाद. साथ ही मैं चाहता हूँ कि हमारी इस विद्यापरिषद् द्वारा समान भावपूर्वक संशोधनका जो प्रयत्न हो रहा है उससे विशुद्ध आर्यधर्म, शास्त्र, साहित्य एवं समस्त भारतीय प्रजाकी विशद दृष्टिके साथ तात्त्विक अभिवृद्धि-समृद्धि हो. [ मुनिश्री हजारीमल स्मृति-प्रन्थ, ब्यावर, ई. स. 1964 ]