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________________ ४२] જ્ઞાનાંજલિ अन्तमें श्री हेमचन्द्रसूरिका जीवनचरित्र दिया है जिसमें इनकी ग्रन्थरचनाओंका भी उल्लेख किया है। किन्तु उसमें नन्दी टिप्पनकके नामका निर्देश नहीं है, यह आश्चर्य की बात है. मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रका उल्लेख इस प्रकार है जे सेण सयं रहया गंथा ते संपर कहेमि ॥४१॥ सुत्तमुवपसमाला-भवभावणपगरणाणि काऊणं । गंथसहस्सा चउदस तेरस वित्ती कया जेण ॥४२॥ अणुओगद्दाराणं जीवसमासस्स तह य सयगस्स । जेणं छ सत्त चउरो गंथसहस्सा कया वित्ती ॥ ४३ ॥ मूलावलय वित्तीय उवरि रश्यं च टिप्पणं जेण । पंच सहस्सपमाणं विसमट्ठाणावबोधयरं ॥४४॥ जेण विसेसावस्य सुत्तस्सुवरिं सवित्रा वित्ती । रइया परिष्फुडत्था अडवीससहस्सपरिमाणा ॥ ४५ ॥ वक्खाणगुण सिद्धिं सोऊणं जस्स गुजरनरिंदो । जयसिंहदेवनामो कयगुणिजणमणचमक्कारो ॥४६॥ इस उल्लेखमें श्रीहेमचन्द्रसूरिरचित सब ग्रन्थोंके नाम और उनका ग्रन्थप्रमाण भी उल्लिखित है. सिर्फ इसमें नन्दीसूत्र टिप्पनकका नाम शामिल नहीं है. संभावना की जाती है कि इस चरितकी प्रारम्भिक नकल करनेके समय प्राचीन कालसे ही ४४ गाथाके बादकी एक गाथा छुट गई है. अस्तु, कुछ भी हो, श्रीहेमचन्द्रसूरि महाराजने आप ही अपनी विशेषावश्यकवृत्तिके अन्तमें " अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं फलकम् " ऐसा उल्लेख किया है. इससे यह बात तो निर्विवाद है कि आपने नन्दिटिप्पनककी रचना अवश्य की थी, जो आज प्राप्त नहीं है. आज जो नन्दिटिप्पनक प्राप्त है वह शीलभद्रसूरि एवं धनेश्वरसूरि इन दो गुरुके शिष्य श्रीचन्द्रसूरिका रचित है जो प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीकी ओरसे छप कर प्रकाशित होगा. (४७) आचार्य मलयगिरि ( वि० १२-१३ श ० ) – इनके गुरु, गच्छ आदिके नामका कोई पता नहीं लगता. ये गूर्जरेश्वर चौलुक्यराज जयसिंहदेव के माननीय और महाराजा कुमारपालदेवके धर्मगुरु श्रीहेमचन्द्राचार्य के विद्या-आराधना के सहचारी थे. आचार्य हेमचन्द्र के साथ इनका सम्बन्ध अति गहरे पूज्यभावका था. इसलिए इन्होंने अपनी आवश्यकवृत्तिमें आचार्य हेमचन्द्रकी द्वात्रिंशिकाका उद्धरण देते हुए " आह च स्तुतिषु गुरवः " इस प्रकार उनके लिए अत्यादरगर्भित शब्दप्रयोग किया है. इन्होंने नन्दीसूत्र, भगवती - द्वितीयशतक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प, आवश्यक पिण्डनिर्युक्ति एवं ज्योतिष्करण्डक - इन जैन आगमों पर सपादलक्ष लोकप्रमाण वृत्तियोंकी रचना की है. इनकी इन वृत्तियों और धर्मसंग्रहणी, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210571
Book TitleJain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherPunyavijayji
Publication Year1969
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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