SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાય [४३ आदिकी वृत्तिओंके अवगाहनसे पता लगता है कि ये केवल जैन आगमोंके ही धुरंधर ज्ञाता एवं पारंगत विद्वान् न थे अपितु गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं कर्मसिद्धान्तमें भी पारंगत थे. इन्होंने मलयगिरिशब्दानुशासन नामक व्याकरणकी भी रचना की थी. अपने वृत्तिग्रंथों में ये इसी व्याकरणके सूत्रोंका उल्लेख करते हैं. इनके जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ओघनियुक्तिटीका, विशेषावश्यकवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रटीका, धर्मसारप्रकरणटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरणटीका आदि कई ग्रन्थ आज प्राप्त नहीं हैं. इनकी कोई मौलिक कृति उपलब्ध नहीं है. देखा जाता है कि ये व्याख्याकार ही रहे हैं. व्याख्याकारों में इनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है. ___ (४८) श्रीचन्द्रसरि (वि. १२-१३ श०)--श्री श्रीचन्द्रसूरि दो हुए हैं. एक मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिके शिष्य, जिन्होंने संग्रहणीप्रकरण, मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र प्राकृत, लघुप्रवचनसारोद्धार आदिकी रचना की है. दूसरे चन्द्रकुलीन श्रीशीलभद्रसूरि और धनेश्वरसूरि गुरुयुगलके शिष्य, जिन्होंने न्यायप्रवेशपञ्जिका, जयदेव छन्दःशास्त्रवृत्ति-टिप्पनक, निशीथचूर्णिटिप्पनक , नन्दिसूत्रहारिभद्रीवृत्तिटिप्पनक, जीतकल्पचूर्णिटिप्पनक, पंचोपांगसूत्रवृत्ति, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, पिण्डविशुद्धिवृत्ति आदिकी रचना की है. यहाँ पर ये दूसरे श्रीचन्द्रसूरि ही अभिप्रेत हैं. इनका आचार्यावस्थाके पूर्वमें पार्श्वदेवगणि नाम था-ऐसा आपने ही न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी अन्तिम पुष्पिकामें सूचित किया है. (४९) आचार्य क्षेमकीर्ति (वि. १३३२)-ये तपागच्छके मान्य गीतार्थ आचार्य थे. आचार्य मलयगिरिप्रारब्ध बृहत्कल्पवृत्तिकी पूर्ति इन्होंने बड़ी योग्यताके साथ की है. आचार्य मलयगिरिने जो वृत्ति केवल पीठिकाकी गाथा ६०६ पर्यन्त ही लिखी थी उसकी पूर्ति लगभग सौ वर्षके बाद में इन्होंने वि० सं० १३३२में की. इस वृत्तिके अतिरिक्त इनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं हुई है. बृहद्भाष्यकारादि (वि० ८ वीं श०)-यहां पर अनेकानेक प्राचीन स्थविरोंका जो महान् आगमधर थे तथा जिनके पास प्राचीन गुरुपरम्पराओंकी विरासत थी, संक्षेपमें परिचय दिया गया. ऐसे भी अनेक गीतार्थ स्थविर हैं जिनके नामका कोई पता नहीं है. कल्पबृहद्भाष्यकार आदि एवं कल्पविशेषचूर्णिकार आदि इसी प्रकारके स्थविर हैं जिनकी विद्वत्ताकी परिचायक कृतियां आज हमारे सामने विद्यमान हैं. अवचूर्णिकारादि (वि. १२ श० से १८ श०)- ऊपर जैन आगमोंके धुरंधर स्थविरोंका परिचय दिया गया है. इनके बाद एक छोटा किन्तु महत्त्वका कार्य करने वाले जो प्रकीर्णककार, अवचूर्णिकार आदि आचार्य हुए हैं वे भी चिरस्मरणीय हैं. यहाँ संक्षेपमें इनके नामादिका उल्लेख कर देता हूँ-- १. पार्श्वसाधु [वि० सं० ९५६], २. वीरभद्रगणि [वि० सं० १०७८ में आराधनापताका, बृहश्चतुःशरण आदिके प्रणेता], ३. नमिसाधु [सं. ११२३]. ४. नेमिचन्द्रसूरि [सं० ११२९], Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210571
Book TitleJain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherPunyavijayji
Publication Year1969
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy