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જ્ઞાનાંજલિ (४१) वीराचार्ययुगल - (१ वि० ९-१० शताब्दी और २ वि० १३ श०) आचार्य हरिभद्र उपर्युक्त पिण्डनियुक्तिवृत्तिको पूर्ण किये बिना ही दिवंगत हो गये थे. इसकी पूर्ति वीराचार्यने की थी. वीराचार्य दो हुए हैं. एक आचार्य हरिभद्रकी अपूर्ण वृत्तिको पूर्ण करनेवाले और दूसरे पिण्डनियुक्तिकी स्वतन्त्र वृत्ति बनाने वाले. इन दूसरे वौराचार्यने अपनी वृत्तिके प्रारम्भमें इस प्रकार लिखा है :
“पञ्चाशकादिशास्त्रव्यूहप्रविधायका विवृतिमस्याः । आरेभिरे विधातु पूर्व हरिभद्रप्रिवराः ॥७॥ ते स्थापनोख्यदोषं यावद् विवृति विधाय दिवमगमन् । तदुपरितनी तु कैश्चिद् वीराचार्यैः समाप्येषा ॥८॥ तत्रामीभिरमुष्याः सुगमा गाथा इमा इति विभाव्य । काश्चिन्न व्याख्याताः, या विवृतास्ता अपि स्तोकम् ॥९॥ ताः सम्प्रति मन्दधियां दुर्बोधा इति मया समस्तानाम् ।
तासां व्यक्तव्याख्याहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥१०॥ (४२) शीलांकाचार्य (वि० १० श०)- इन्होंने आचारांग व सूत्रकृतांगकी टीका की है. इन दो टीकाओंमें दार्शनिक पदार्थोकी अनेक प्रकारसे विचारणा की गई है. आचारांग प्रथम श्रुत स्कंध टिकाकी समाप्ति वि० सं० ९०७में हुई है और द्वितीय श्रुतस्कंधटीकाकी समाप्ति वि० सं० ९१९ या ९३३में हुई है. चउप्पन्नमहापुरिसचरियके प्रणेता शोलांकसे ये शीलांक भिन्न हैं.
(४३) वादिवेताल शान्तिसूरि (वि० ११ वीं शताब्दी )--उत्तराध्ययनसूत्रकी पाइयटीकाके प्रणेता यही आचार्य हैं. ये विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीमें हुए हैं. गोपालिकमहत्तरशिष्य प्रणीत चूर्णिके बाद अनेक दार्शनिक वादों से पूर्ण समर्थ टीका यही है. इसके बाद जो अनेक टीकाएँ लिखी गई उन सबका मूल स्रोत यही टोका है. इसमें प्राकृत अंशकी अधिकता है अतः इसका नाम 'पाइय टीका' प्रचलित हो गया है. आचार्य हरिभद्रविरचित और आचार्य मलयगिरिविरचित आवश्यकसूत्रकी टीकाएँ, द्रोणाचार्यकी ओधनियुक्तिवृत्ति व नेमिचन्द्रसूरिकी उत्तगध्ययनसूत्रकी सुखबोधा टीका प्राकृतप्रधान ही है.
(४४) द्रोणाचार्य (वि० १२ श०)- ये जैन आगमोंके अतिरिक्त स्वपरदर्शनशास्त्रोके भी ज्ञाता आचार्य थे. इन्होंने अभयदेवाचार्यविरचित जैन अंग आगमोंकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्य टीकाग्रन्थोंका भी संशोधन आदि किया है. इनकी अपनी एक ही कृति है और वह है ओघनियुक्तिवृत्ति.
(४५) अभयदेवसूरि (वि० १२ वीं श०)-- इन्होंने स्थानांग आदि नौ अंगसूत्रों पर वृत्तियां बनाई हैं अतः ये 'नवाझवृत्तिकार 'के नामसे पहचाने जाते हैं. इन अंग आगमोंमें जगह -जगह वर्णक-संदर्भीका निर्देश किया गया है अतः सर्वप्रथम इन्होंने औपपातिक उपांगसूत्रकी वृत्ति
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