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________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [61 अनुसार ही साहित्यकी रचना होती है. आजका युग ऐतिहासिक परीक्षणको आधारभूत मानता है, प्राचीन युग साम्प्रदायिकताको आधारभूत मानकर चलता था. आजके युगके साधन व्यापक एवं सुलभ हैं। प्राचीन युगमें ऐसा नहीं था. इन बातोंको ध्यानमें रखा जाय तो वह युग और उस युगके साहित्यके निर्माता लेश भी उपालम्भ या आक्षेपके पात्र नहीं हैं. अगर देखा जाय तो साधनोंकी दुर्लभताके युगमें प्राचीन महर्षि और विद्वानोंने कुछ कम कार्य नहीं किया है. पिशलके व्याकरणके हिंदी अनुवादक श्रीयुक्त जोषीजीको पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानोंकी विपुल विचारसामग्रीमेंसे प्राकृत भाषाओंके सम्बन्धमें ज्ञातव्य कोई लेखादि नजरमें नहीं आया, सिर्फ उनकी नजरमें विदुषी श्रीमती डोल्ची नित्तिके ग्रन्थका आचार्य श्री हेमचन्द्र एवं डॉ० पिशलके व्याकरणको अतिकटु टीका जितना अंश ही नजरमें आया है जिसका साराका सारा हिन्दी अनुवाद आमुखमें उन्होंने भर दिया है जो पिशलके व्याकरणके साथ असंगत है. एक ओर जोषीजी स्वयं डॉ. पिशलको प्राकृतादि भाषाओंके महर्षि आदि विशेषण देते हैं और दूसरी ओर डोल्ची नित्तिके लेखका अनुवाद देते हैं जो प्राकृत भाषाके विद्वानोंको समग्रभावसे मान्य नहीं है, यह बिलकुल असंगत है. एक दृष्टि से ऐसा कहा जा सकता है कि-श्रीयुक्त जोशीजीने ऐसा निकृष्ट कोटिका आमुख, जिसमें आप प्राकृत भाषाओं के विषयमें ज्ञातव्य एक भी बात लिख नहीं पाये हैं,--लिख कर अपने पाण्डित्यपूर्ण अनुवादको एवं इस प्रकाशनको दूषित किया है. डॉ० पिशलका 'प्राकृत भाषाओंका व्याकरण' जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ० हेमचन्द्र जोषी डी० लिट्ने किया है और जो विहार राष्ट्र भाषा परिषद की ओरसे प्रकाशित हुआ है. उसमें अनुवादक और प्रकाशकोंने बहुत अशुद्ध छपनेके लिये खेद व्यक्त किया है और विस्तृत शुद्धिपत्र देनेका अनुग्रह भी किया है तो भी परिषद्के मान्य कुशल नियामकोंसे मेरा अनुरोध है कि 68 पन्नोका शुद्धिपत्र देने पर भी प्राकृत प्रयोग और पाठोंमें अब भी काफी अशुद्धियां विद्यमान है, खास कर जैन आगमों के प्रयोगों और पाठोंकी तो अनर्गल अशुद्धियां रही हैं. इनका किसी जैन आगमज्ञ और प्राकृत भाषाभिज्ञ विद्वानसे परिमार्जन विना कराये इसका दूसरा संस्करण न निकाला जाय. शब्दोकी सूचीको कुछ विस्तृत रूप दिया जाय एवं ग्रन्थ और ग्रन्थकारोके नामोंके परिशिष्ट भी साथमें दिये जायँ. अन्तमें अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए आप विद्वानोंसे अभ्यर्थना करता हूँ कि ---- मेरे बक्तव्यमें अपूर्णता रही हो उसके लिये क्षमा करें. साथ ही मेरे वक्तव्यको आप लोगोंने शान्तिपूर्वक सुना है इसके लिये आपको धन्यवाद. साथ ही मैं चाहता हूँ कि हमारी इस विद्यापरिषद् द्वारा समान भावपूर्वक संशोधनका जो प्रयत्न हो रहा है उससे विशुद्ध आर्यधर्म, शास्त्र, साहित्य एवं समस्त भारतीय प्रजाकी विशद दृष्टिके साथ तात्त्विक अभिवृद्धि-समृद्धि हो. [ मुनिश्री हजारीमल स्मृति-प्रन्थ, ब्यावर, ई. स. 1964 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210571
Book TitleJain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherPunyavijayji
Publication Year1969
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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