SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४.] જ્ઞાનાંજલિ नाम आता है वह आजके 'आउरपञ्चक्खाणसे अलग है. सामान्यतः वीरभदाचार्यको भगवान् महावीरका शिष्य मानते हैं परन्तु उपरोक्त प्रमाणको पढ़नेके वाद यह मान्यता भ्रान्त सिद्ध होती है. इस प्रकार दूसरे आगम भी अलग-अलग समयमें रचे हुए हैं. हो सकता है कि रायपसेणीयसूत्र भगवान् महावीरके समय ही में रचा गया हो. नंदी-पाक्षिक सूत्रोंके अनुसार आगमोंके चौरासी नामों व आजके प्रचलित आगमों के नामोंसे विद्वान् परिचित हैं ही अतः उनका उल्लेख न करके मैं मुद्देकी बात कह देता हूँ कि- आज अंगसूत्रोंमें जो प्रश्नव्याकरणसूत्र है वह मौलिक नहीं किन्तु तत्स्थानापन्न कोई नया ही सूत्र है. इस बातका पता नंदीसूत्र व समवायांगके आगम-परिचयसे लगता है. आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिने देवेन्द्र-नरकेन्द्र प्रकरणकी अपनी वृत्तिमें राजप्रश्नीय सूत्रका नाम 'राजप्रसेनजित्' लिखा है जो नंदीपाक्षिक सूत्रमें दीये हुए ‘रायप्पसेणइय' इस प्राकृत नामसे संगति बैठानेके लिए है. वैसे राजप्रश्नीयमें प्रदेशिराजाका चरित्र है. इस आगमको पढ़ते हुए पेतवत्थु नामक बौद्धग्रंथका स्मरण हो जाता है. प्रकीर्णक-सामान्यतया प्रकीर्णक दस माने जाते हैं किन्तु इनकी कोई निश्चित नामावली न होनेके कारण ये नाम कई प्रकारसे गिनाये जाते हैं. इन सब प्रकारोमें से संग्रह किया जाय तो कुल बाईस नाम प्राप्त होते हैं जो इस प्रकार हैं - १. चउसरण, २. आउरपञ्चक्वाण, ३. भत्तपरिणगा, ४. संथारय, ५. तंदुलवेयालिय, ६. चंदावेमय, ७. देविदत्थय, ८. गणिविज्जा, ९. महापच्चक्खाण, १०. वीरस्थय, ११ इसिभासियाई, १२. अजीवकप्प, १३. गच्छायार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालि, १६. आराहणापडागा, १७. दीवसागरपण्णत्ति, १८. जोइसकरंडय, १९. अंगविजा, २०. सिद्धपाहुड, २१. सारावली, २२. जीवविभत्ति. इन प्रकीर्णकोंके नामोंमें से नंदी-पाक्षिकसूत्रमें उत्कालिक सूत्रविभागमें देविंदत्थय, तंदवेयालिय, चंदावेज्झय, गणिविजा, मरणविभत्ति-मरणसमाहि, आउरपच्चक्खाण, महापञ्चक्खाण, ये सात नाम और कालिक विभागमें इसिभासियाई, दोवसागरपण्णत्ति ये दो नाम इस प्रकार ९ नाम पाये जाते हैं. फिर भी चउसरण, आजका आउरपञ्चक्खाण, भत्तपरिणा, संथारय और आराहणापडागा-इन प्रकीर्णको को छोड़कर दूसरे प्रकीर्णक बहुत प्राचीन हैं, जिनका उल्लेख चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णियोंमें किया है. तंदुलवेयालियका उल्लेख अगस्त्यचूर्णि (पत्र ३)में है. जैसे कर्मप्रकृति शास्त्रका कम्मप्पगडीसंग्रहणी नाम कहा जाता है, इसी प्रकार दीवसागरपण्णत्तिका दीवसागरपण्णतिसंग्रहणी यह नाम संभावित है. श्वेतांबर मूर्तिपूजक वर्ग तित्थोगालिपइण्णयको प्रकीर्णकोंकी गिनतीमें शामिल करता है, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210571
Book TitleJain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherPunyavijayji
Publication Year1969
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy