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જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય
अलंकारशास्त्र
जैसलमेर के श्री जिनभद्रीय ताडपत्र ज्ञानभंडार में प्राकृत भाषामें रचित अलंकारदर्पण नामक एक अलंकार ग्रंथ है, जिसके प्रारंभमें ग्रंथकारने :
सुंदरपयविण्णासं बिमलालंकार रेडिअसरीरं । सुइदेविअं च कव्वं च पणविअं पवरषण्णड्ढं ॥३॥
इस आर्या में 'श्रुतदेवता' को प्रणाम किया है. इससे प्रतीत होता है कि यह किसी जैनाचार्य की कृति है. इसका प्रमाण १३४ आर्या हैं तथा यह हस्तप्रति विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लिखी प्रतीत होती है.
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नाटक व नाट्यशास्त्र
राजा आदि उच्च वर्गके व्यक्तियोंको छोड़ कर नाटकोंमें शेष सभी पात्र प्राकृत भाषाका ही प्रयोग करते हैं. यदि हिसाब लगाया जाय तो पता लगेगा कि सब मिलाकर नाटकों में संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृत अधिक नहीं तो कम भी प्रयुक्त नहीं हुई है. अतएव प्राकृत भाषाके साहित्यको चर्चा में नाटकोंको भुलाया नहीं जा सकता. स्वतंत्ररूपसे लिखे गये नाटकोंसे तो आप परिचित हैं ही, किंतु कथाग्रंथोके अन्तर्गत जो नाटक आये हैं उन्हींकी विशेष चर्चा यहां अभीष्ट है. प्रसंगवशात् यह भी कह दूँ कि आवश्यक चूर्णिमें प्राचीन जैन नाटकोंके होनेका उल्लेख है. शीलांकके चउप्पन्न-महापुरिस चरियमें ( वि० १० वीं शती) विबुधानंद नामक एकांकी नाटक है. देवेन्द्रसूरिने चन्द्रप्रभचरितमें वज्रायुध नाटक लिखा है. आचार्य भद्रेश्वर ने कहावलीमें व देवेन्द्रसूरिने कहारयणकोसमें नाटकाभास नाटक दिये हैं. ये सब कथाचरितान्तर्गत नाटक हैं
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स्वतंत्र नाटकोंकी रचना भी जैनाचार्योंने काफी मात्रामें की हैं. श्री देवचन्द्रमुनिके चंद्रलेखाविजयप्रकरण, विलासवतीनाटिका और मानमुद्राभंजन ये तीन नाटक हैं. मानमुद्राभंजन अभी अप्राप्य है. यशवन्द्रका मुद्रित कुमुदचंद्र और राजीमती नाटिका, यशःपालका मोहराजपराजय, जयसिंहरिका हम्मीरमदमर्दन, रामभद्रका प्रबुद्ध रौहिणेय, मेघप्रभका धर्माभ्युदय व बालचंद्रका करुणावज्रायुधनाटक प्राप्त हैं. रामचंद्रसूरिके कौमुदीमित्राणंद, नलविलास, निर्भयभीमव्यायोग, मल्लिकामकरन्द, रघुविलास व सत्यहरिश्चन्द्रनाटक उपलब्ध हैं; राघवाभ्युदय यादवाभ्युदय, यदुविलास आदि अनुपलब्ध हैं. इन्होंने नाटकोंके अलावा नाट्यविषयक स्वोपज्ञटीकायुक्त नाट्यदर्पणको भी रचना की है. इसके प्रणेता रामचंद्र व गुणचंद्र दो हैं. इन दोनोंने मिलकर स्वोपज्ञटीकायुक्त द्रव्यालंकारकी भी रचना की है. नाट्यदर्पणके अतिरिक्त रामचंद्रका नाट्यशास्त्रविषयक 'प्रबंधरात ' नामक अन्य ग्रंथ भी था जो अनुपलब्ध है. यद्यपि बहुत से विद्वान् ' प्रबंधशत' का अर्थ 'चिकीर्षित सौ ग्रंथ' ऐसा करते हैं, किन्तु प्राचीन ग्रंथसूचीमें " रामचंद्रकृतं प्रबंधशतं द्वादशरूपकनाटकादि
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