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જૈન આગમધર ઓર પ્રાકૃત વાલ્મય इन दोनों स्थविरोंने वी० सं० ८२७से ८४० के बीच किसी वर्षमें क्रमशः मथुरा व वलभीमें संघसमवाय एकत्र करके जैनागमोंको जिस रूपमें याद था उस रूपमें ग्रन्थरूपसे लिख लिया. दोनों स्थविर वृद्ध होने के कारण परस्पर मिल न सके. इसका परिणाम यह हुआ कि दोनोंके शिष्यप्रशिष्यादि अपनी-अपनी परम्पराके आगमोको अपनाते रहे और उनका अध्ययन करते रहे. यह स्थिति लगभग़ देढ़ सौ वर्ष तक रही. इस समय तक कोई ऐसा प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति नहीं हुआ जो आगमोंके इस पाठभेदका समन्वय कर पाता. इसी कारण आगमोंका व्यवस्थित लेखन आदि भी नहीं हो सका. जो कुछ भी हो आज जो जैनागम विद्यमान हैं वे इन दोनों स्थविरों की देन हैं.
(२१) स्थविर आर्य गोविन्द (वीर नि० ८५०से पूर्व)-ये पहले बौद्ध आचार्य थे और बादमें इन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया था. इन्होंने गोविन्दनियुक्ति की रचना की थी जिसमें पृथ्वी, पानी, अग्नि आदिकी सजीवताका निरूपण किया गया है. यह नियुक्ति किस आगमको लक्ष्य करके रची गई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता. फिर भी अनुमान होता है कि यह आचारांगसूत्रके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा अथवा दशवैकालिक सूत्रके चतुर्थ अध्ययन छ जीवगियाको लक्ष्य करके रची गई होगी. आज इस नियुक्तिका कहीं पर भी पता नहीं मिलता है. आचार्य गोविंदके नामका उल्लेख दशवैकालिकसूत्रके चतुर्थ अध्ययनकी वृत्तिमें आचार्य हरिभद्रने भाष्यगाथाके नामसे जो गाथाएं उद्धृत कर व्याख्या की है उसमें " गोविंदवायगो विय जह परपक्वं नियत्तेइ" (पत्र० ५३,१ गा० ८२) इस प्रकार उल्लेख आता है. आचार्य हरिभद्र · गोविंदवायग' इस प्राकृत नामका संस्कृतमें परिवर्तन 'गोपेन्द्र वाचक' नामसे करते हैं. आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपने योगबिन्दु ग्रन्थमें गोपेन्द्रके नामसे जो अवतरण दिये हैं, वे संभव है कि इन्हीं गोपेन्द्र वाचकके हो. जैनआगमोंके भाष्यमें इन गोविन्द स्थविरका उल्लेख ' ज्ञानस्तेन 'के रूपमें किया गया है. इसका कारण यह है कि ये पहले जैनाचार्योकी युक्ति-प्रयुक्तियों को जानकर उनका खण्डन करनेकी दृष्टि से ही दीक्षित हुए थे, किन्तु बादमें उनके हृदयको जैनाचार्योकी युक्ति-प्रयुक्तियोंने जीत लिया जिससे वे फिरसे दीक्षित हुए और महान् अनुयोगधर हुए. नंदीसूत्रकी प्रारंभिक स्थविरावलीमें इनका परिचय प्रक्षिप्तगाथाके द्वारा इस प्रकार दिया है:
गोविंदाणं पि णमो अणुओगे विउलधारणिंदाणं ।
निच्चं खंति-दयाणं परूवणादुल्लभिदाणं ॥ (२२, २३) देवद्धिंगणि व गन्धर्व वादिवेताल शांतिसरि (वीर नि० ९९३)देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण माथुरी वाचनानुयायी प्रतिभासम्पन्न समर्थ आचार्य थे. इन्हींकी अध्यक्षतामें वलभीमें माथुरी एवं नागार्जुनी वाचनाओके वाचनाभेदोंका समन्वय करके जैनआगम व्यवस्थित किये गये और लिखे भी गये. गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि वालभी वाचनानुयायी मान्य स्थविर थे. इनके विषयमें -
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