Book Title: Jain Agamdhar aur Prakrit Vangamaya
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 6
________________ જ્ઞાનાંજલિ हैं वे श्रुतकेवली भद्रबाहुकी नहीं हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि द्वितीय भद्रबाहुके पूर्व कोई नियुक्तियाँ थी ही नहीं. नियुक्ति रूपमें आगमव्याख्याकी पद्धति बहुत पुरानी है. इसका पता हमें अनुयोगद्धारसे लगता है. वहां स्पष्ट कहा गया कि अनुगम दो प्रकारका होता है : सुत्ताणुगम और निज्जुत्तिअणुगम. इतना ही नहीं किन्तु नियुक्तिरूपसे प्रसिद्ध गाथाएं भी अनुयोगद्वारमें दी गई हैं. पाक्षिकसूत्रमें भी " सनिज्जुत्तिए" ऐसा पाठ मिलता है. द्वितीय भद्रबाहुके पहले भी गोविन्द वाचककी नियुक्तिका उल्लेख निशीथभाष्य व चूर्णिमें मिलता है. इतना ही नहीं किन्तु वैदिकवाङ्मयमें भी निरुक्त अति प्राचीन है. अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जैनागमकी व्याख्याका नियुक्ति नामक प्रकार प्राचीन है. यह संभव नहीं कि विक्रमको छठी शताब्दी तक आगमोंकी कोई व्याख्या नियुक्तिके रूपमें हुई ही न हो. दिगम्बरमान्य मूलाचारमें भी आवश्यक-नियुक्तिगत कई गाथाएं हैं. इससे भी पता चलता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदायका स्पष्ट भेद होनेके पूर्व भी नियुक्तिकी परम्परा थी. ऐसी स्थितिमें श्रुतकेवली भद्रबाहुने नियुक्तियों की रचना की है - इस परम्पराको निर्मूल माननेका कोई कारण नहीं है. अतः यही मानना उचित है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुने भी नियुक्तियों की रचना की थी और बादमें गोविन्द वाचक जैसे अन्य आचार्योंने भी. उसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते नियुक्तियोंका जो अन्तिम रूप हुआ वह द्वितीय भद्रबाहुका है. अर्थात् द्वितीय भद्रबाहुने अपने समय तककी उपलब्ध नियुक्ति-गाथाओंका अपनी नियुक्तियोंमें संग्रह किया हो, साथ ही अपनी ओरसे भी कुछ नई गाथाएं बना कर जोड दी. यही रूप आज हमारे सामने नियुक्तिके नामसे उपलब्ध है. इस तरह क्रमशः नियुक्ति गाथाएं बढ़ती गईं. इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि दशवकालिक की दोनों चूर्णियों में प्रथम अध्ययनकी केवल ५७ नियुक्ति गाथाएं हैं जब कि हरिभद्रकी वृत्तिमें १५७ हैं. इससे यह भी सिद्ध होता है कि द्वितीय भद्रबाहुने नियुक्तियों का अन्तिम संग्रह किया. इसके बाद भी उसमें वृद्धि होती है. इस स्पष्टीकरणके प्रकाशमें यदि हम श्रुतकेवली भद्रवाहुको भी नियुक्तिकार मानें तो अनुचित न होगा. (७) श्यामाचार्य (वीर नि० ३७६में दिवंगत)- इन्होंने प्रज्ञापना उपांगसूत्रकी रचना की है. प्रज्ञापनासूत्रके “वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण" इस प्रारंभिक उल्लेखके अनुसार ये वाचकवंशके २३ वें पुरुष थे. (८, ९, १०) आर्य सुहस्ति (वीर नि० २९१), आर्यसमुद्र (वीर नि० ४७०) और आर्य मंगु (वीर नि० ४७०)- इन तीन स्थविरोंकी कोई खास कृति हमारे सामने नहीं है, किन्तु जैन आगमोंमें, खासकर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदिमें नाम-स्थापना आदि निक्षेप द्वारा पदार्थमात्रका जो समप्रभावसे प्रज्ञापन किया जाता है इसमें जो द्रव्य-निक्षेप आता है इस विषयमें इन तीन स्थविरों की मान्यताका उल्लेख कल्पचूर्णिमें किया गया है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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