Book Title: Hindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ प्राक्कथन हिन्दी भाषा उठते हुए राष्ट्र की महती शक्ति है । वह लगभग बीस करोड़ व्यक्तियों के साहित्य का माध्यम है। उसका भविष्य उज्ज्वल है; उसके भूत काल का उत्तराधिकार भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। भाषा की दृष्टि से प्राचीनतम प्रार्य-वंश की भाषाओं की साक्षात् क्रमिक परम्परा हिन्दी भाषा को प्रात हुई है। वैदिक भाषा के अनेक शब्द और अनेक धातु इस समय की हिन्दी भाषा में और उससे सम्बन्धित दूर-दूर तक फैली हुई जनपदों की बोलियों में सुरक्षित हैं। संहिता-ब्राह्मण-सूत्र-काल की संस्कृत भाषा का उत्तराधिकार शताब्दियों के भीतर से विकसित होता हुअा हिन्दी को प्राप्त हुआ है। बुद्ध के चिरजीवी उपदेशों की धात्री पाली भाषा, भगवान् महावीर के प्रवचनों को सुरक्षित रखनेवाली अर्धमागधी भाषा, एवं कालान्तर में विकसित शौरसेनी, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा को विकास-धाराएँ अपने समृद्ध साहित्यिक कोप को लिये हुए वर्तमान हिन्दी भाषा और साहित्य के महासमुद्र में समवेत हुई हैं। हिन्दी के परसहस्र शब्दों के ग्रादिमूल की खोज हिन्दी भाषाओं के प्राचीन साहित्य में मिल सकती है। हिन्दी के साहित्यिक अलंकार, शैली और अभिप्रायों का विकास भी उपरोक्त भाषाओं के प्राचीन साहित्य द्वारा ही जाना जा सकता है। भाषा के शब्द-भण्डार और साहित्य की समृद्धि दोनों दृष्टियों से हिन्दी भाषा का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन विस्तृत रूप में हमारे सम्मुख प्रकट हो रहा है। उसी विस्तार का एक उदाहरण श्री कामताप्रसाद जी द्वारा प्रणीत इस पुस्तक में मिलता है। हिन्दी भाषा का जो प्राचीन साहित्यिक विस्तार है उसके विषय में बहुत सी नई सामग्री का परिचय हमें इस पुस्तक के द्वारा प्राप्त होगा। अपभ्रंश-काल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दि तक जैन-धर्मानुयायी विद्वानों ने हिन्दी में जिस साहित्य की रचना की, लेखक ने

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