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[हिन्दी जैन साहित्य का
निष्कलंक सकल गुणाकर और विश्व के लिये उपकारी है, अतः जैन साहित्य-सागर अपार है, विशाल है, गंभीर है। मूलतः वह अर्द्धमागधी प्राकृत भाषामय था, उपरान्त देश और काल की मानवी आवश्यकताओं के अनुरूप वह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश हिन्दी, गुजराती, कनडी, तामिल आदि भाषाओं में भी रचा गया। हमें यहाँ पर हिन्दी जैन साहित्य की ऐतिहासिक रुपरेखा पर दृष्टिपात करना अभीष्ट है। ___जैनाचार्यों और जैन विद्वानों ने जो भी सुंदर आत्मपीयूष-रंस से छलछलाता साहित्य हिन्दी भाषा में रचा, वही आज हिन्दी जैन साहित्य के नाम से अभिप्रेत है । वह विशाल है और महत्त्वशाली भी; किन्तु खेद है कि हिन्दी साहित्य के महारथियों ने इस अमूल्य निधि की ओर आँख उठाकर देख भर लेने का भी कष्ट नहीं किया ! इसका परिणाम यह हुआ कि अगणित ग्रन्थ-रत्न अंधकार में विलीन हो गये और हो रहे हैं। दुर्भाग्यवश भारतवर्ष ने जिस दिन अपने सहिष्णु भाव को भुलाया-उदारनीति को उठा कर ताक में रख दिया और सम्प्रदायवाद के दलदल में वह फंसा, उसी दिन से उसका साहित्यिक ही नहीं राष्ट्रीय ह्रास भी हुआ। आज हिन्दी जैन साहित्य को जाननेवाले कहां हैं ? और यदि भाग्यवशात् जानने का इच्छुक भी कोई हुआ तो उसको हिन्दी जैन साहित्य का परिचय कराने वाले साधन कहां हैं ? इस संकुचित रीति नीति का दुष्परिणाम भुक्तभोगी ही अनुमान कर सकता है।
यह बात भी नहीं है कि इस संकुचित नीति का रोग सामान्य गृहस्थों तक ही सीमित हो, प्रत्युत हमारे शिक्षित महानुभाव भी, इस रूप में न सही दूसरे में सही, उससे अछूते नहीं हैं। उन पर