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संक्षिप्त इतिहास ]
[ २ ] हिन्दी जैन साहित्य की विशेषता और महत्ता -
हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास लिखने के पहले यहाँ पर यह देख लेना अप्रांसगिक नही है कि उसका वास्तविक रूप और आकार क्या है । क्या वास्तव में हिन्दी जैन साहित्य इतना महत्त्वशाली और सर्वोपयोगी है कि उसका समावेश हिन्दी में किया जा सके ? उसकी क्या विशेषता है जो उसका अध्ययन किया जावे ?
इसमें किसी को मतभेद नहीं हो सकता कि साहित्य का मूल उद्देश्य मानव का आत्मविकास करना है । साहित्य वही है, जो मानव को मुक्ति का सन्देश देता हो, उसे आत्मस्वातन्त्र्य प्राप्त करने का मार्ग सुझाता हो । बुद्धि-कौशल और भाषा विषयक पांडित्य प्राप्त कर लेना एक चीज़ है और आत्मबोध को प्राप्त करना दूसरी वस्तु है । बुद्धि-कौशल कदाचित् मनुष्य को मानव से दानव भी बना देता है । आज योरोप के बुद्धिवादी राष्ट्र इसके उदाहरण बने हुये हैं । किन्तु आत्मबोधक साहित्य मानव को मानव ही नहीं, अपि तु देव बना देता है । अतः जो साहित्य जगत् को आत्मभान कराने में कारणभूत है वह अभिवन्दनीय है, मानव की वह अपूर्व निधि है, सत्संस्कृति का प्रतीक है। आज 'भगवद्गीता' इसी लिये लोकमान्य हो रही है कि उसमें वेदान्त का सुन्दर निरूपण हुआ है । वह मानव को ऐहिक और पारमार्थिक कर्तव्य पालन करने का बोध कराती है । उसे निष्काम कर्मवीर बनाती है । ठीक यही बात जैनियों के हिन्दी साहित्य के लिये भी चरितार्थ है । जैन साहित्य मानव को आत्मदर्शी बनने के लिये उत्साहित करता है