Book Title: Hindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshva Prakashan

Previous | Next

Page 9
________________ क्योंकि कंस-वध, द्वारका में राज्य स्थापना, रुक्मिणी से विवाह, कालसंवर के प्रसंग, जरासंध-वध इत्यादि के प्रसंग दोनों में ही लगभग समान रूप में उपलब्ध हैं । दोनों में ही कृष्ण की अद्वितीय वीरता तथा पराक्रम का यशोगान हुआ है। दोनों विचारधाराओं के अन्तर की दृष्टि से जैन-कथा के अरिष्टनेमि विषयक प्रसंग, महाभारत में वर्णित युद्ध का स्वरूप तथा उसमें कृष्ण द्वारा गीता के तत्त्वज्ञान का उपदेश एवं श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित् कृष्ण गोपियों के प्रसंगों पर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है। साम्य और अन्तर के ये प्रसंग कृष्ण-चरित के ऐतिहासिक स्वरूप के अनुसंधान में उपयोगी हो सकते हैं । वस्तुतः द्वारकाधीश कृष्ण के ऐतिहासिक एवं पौराणिक दोनों रूपों का अध्ययन अपेक्षित है । महाभारत की कथा में कृष्ण के जिस पराक्रमपूर्ण लोकोत्तर व्यक्तित्व का वर्णन है, वह जैन-कथा में भी उपलब्ध है । महाभारत में कृष्ण, भगवान विष्णु के अवतार, भगवान वासुदेव के रूप में प्रतिष्ठित हैं और उनके वासुदेवावतार का प्रयोजन दुष्टों का दलन है। __जैन कथा में कृष्ण शलाका(श्रेष्ठ)पुरुष वासुदेव कहे गए हैं । इस स्वरूप में वे महान वीर एवं शक्तिशाली अर्द्ध चक्रवर्ती नरेश के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इस प्रकार कृष्ण के वीर स्वरूप की मान्यता दोनों परंपरा में है। महाभारतेतर वैष्णव पौराणिक साहित्य में कृष्ण के वीर नायक के लोकरक्षक व्यक्तित्व के साथ-साथ उनके गोकुल-प्रवास में गोप-बालाओं । १- मानुषं लोकमातिष्ठ वासुदेव इति श्रुतः । असुराणां वधाधीय सम्भवस्य महीतले ।। -महाभारत : भीष्म पर्व : ६६/८ २- शलाका-पुरुषों के सम्बन्ध में जैन-परंपरागत विशिष्ट मान्यता है । इस मान्यता के अनुसार एक काल खण्ड में प्रेसठ शलाका पुरुष लोक में जन्म लेते हैं । इनकी ग्रेसठ संख्या इस प्रकार है:२४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव तथा ९ बलदेव । जैन मान्यतानुसार काल अनादि अनन्त चक्र है । इस चक्र के दो मुख्य काल-खण्ड हैं (१) उन्नतिकाल (उत्सर्पिणी) (२) अवनति काल (अवसर्पिणी) प्रत्येक काल-खण्ड के छः विभाग हैं-अति सुख रूप, सुख रूप, सुख-दुःख रूप, दुःख-सुख रूप, दुःख रूप, अति दुःख रूप । ये विभाग कालचक्र के विभिन्न आरे हैं। इनमें प्रवहमान होकर काल-चक्र सदा चलता रहता है । यह सुख से दुःख की ओर एवं पुनः दुःख से सुख की ओर क्रमशः चलता रहता है। IV . हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 190