Book Title: Gita Darshan Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 11
________________ आसक्ति का सम्मोहन ... 21 समता-योग का सार है / अतियों में डोलता है मन / दो के बीच रुकना / योगी-न तो भोगी है, न त्यागी / जो चुनावरहित हुआ, निर्द्वद्व हुआ-वह योगी / चुनाव मध्य में नहीं ठहरता / चुनाव में विपरीत का बंधन / मनुष्य अर्थात मन वाला / मन-गौरव भी और कष्ट भी / मन का अतिक्रमण / मन अर्थात चुनाव / संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष / चुनाव उत्तेजना है / उत्तेजना पीड़ा है / मिल गए से ऊब / विपरीत का आकर्षण / पछताना-क्रोध की पुनः तैयारी है / पश्चात्ताप न करने से पीड़ा का सघन होना / विपरीत में न जाएं-रुकें/मन के रहते-निर्द्वद्वता संभव नहीं / अ-मन में साम्यवाद घटित / समाज की व्यवस्था-द्वंद्वात्मक मन का फैलाव है / योगारूढ़-समतावान व्यक्ति अत्यल्प होते हैं / मन ही नर्क है / समता के कुछ प्रयोग करें / बाएं-दाएं पैर पर शरीर का वजन समान करना / मध्य में देहशून्यता का अनुभव / निर्द्वद्व होना बड़ी बुद्धिमत्ता है / द्वंद्व के सब निर्णय-नासमझी के / योगारूढ़ अर्थात जो स्वयं में ठहर गया / मध्य में है आत्मा / योग के पंख-परमात्मा में छलांग / चुनाव छूटा-कि संकल्प छूटा / संकल्प है-वासना में नियोजित शक्ति / जिन-जिन संकल्पों से लौट सकते हैं-लौट जाएं / अचुनाव का निर्णय / इच्छाओं के बादलों का आना-जाना / विचार-शून्यता और संकल्प-शून्यता में क्या भेद है? / दोनों की प्रक्रिया भिन्न है-सिद्धि एक है / निर्विचार की प्रक्रिया है-साक्षी / निःसंकल्पता की प्रक्रिया है-समत्व / विचारक, दार्शनिक–इच्छाओं के जाल में नहीं होते / आइंस्टीन का जीवन—एक तपस्वी का / विचारों की दुनिया में खोया हुआ / दो टाइप-बुद्धिजीवी और वासनाजीवी / अर्जुन इच्छाजीवी है, योद्धा है / विचार नहीं-कृत्य, संकल्प / जापानी योद्धा समुराई का तत्काल कृत्य / पूरे प्राणों से लड़ना / आइंस्टीन की भुलक्कड़ी / अधिकतम लोग वृत्तियों में, वासनाओं में जीते हैं / विचार के प्रति सजगता; भाव के प्रति स्मृति; वासना के प्रति समत्व / घाट अलग-अलग-गंगा एक / तीर्थंकर अर्थात घाट बनाने वाला / घाट-छलांग के लिए / अपने ही घाट का दावा गलत है / कर्मों में आसक्ति-इंद्रियों में आसक्ति के कारण / धन का मूल्य है-वासनाओं की तृप्ति में / नरक के द्वार पर स्वर्ग की तख्ती / तृप्ति का मात्र आश्वासन है / इंद्रियातीत स्व की खोज / इंद्रियों से तादात्म्य हटाना / चेतना सदा ताजी है / देह से अपने सम्मोहन को तोड़ना / आसक्ति न रहने पर सम्यक कर्प का जन्म / मानसिक विलास / जरूरत और विलास / आसक्ति से विकृति / वासना अनंत है—आवश्यकता अल्प है / कामवासना प्रकृति के लिए जरूरी-व्यक्ति के लिए नहीं / भोजन जारी रहेगा-वासना तिरोहित हो जाएगी / आसक्ति-शून्य इंद्रियां-शुद्धतम / शुद्धतम कर्म शेष। मालकियत की घोषणा ... 39 योग मंगल है | आत्मा स्वतंत्र है-ऊपर उठने या नीचे गिरने के लिए / अहित की भी स्वतंत्रता / स्वयं के लिए दुख बोना / फल बताता है कि बीज कैसे थे/चाहते हैं अमृत-बोते हैं जहर / तरंगों का वापस लौटना / बीज बोकर भूल जाना / इंच-इंच का हिसाब है / अधार्मिक अर्थात जो अपना शत्रु है / शुभ और अशुभ तरंगों का सूक्ष्म जगत / मंगल-कामना की तरंगें बिखेरना / नमस्कार से प्रभु-स्मरण / जय राम जी / भीतर छिपे श्रेष्ठ को उभारना / स्वयं के मित्र बनना / पुरानी भूलें न दोहराना / दूसरे के साथ वही करो, जो तुम अपने साथ किया जाना चाहते हो / योग का प्रारंभ-अपना मित्र होने से / मित्रता बड़ी साधना है / शत्रुता आसान है / क्रोध है-दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा देना / स्वयं को प्रेम करना कठिन है / दूसरे को प्रेम करना सरल है / गुरजिएफ का बाल-संस्मरण : चौबीस घंटे बाद क्रोध करना / बुरा करने से पहले रुकना / शुभ का स्थगन न करें / अपना मित्र होना योग है । अपना शत्रु होना अयोग है / अपना स्वर्ग बनाएं या नर्क दायित्व और स्वतंत्रता आपकी है / शरीर और इंद्रियां वश में हों / विपरीत दौड़ती इंद्रियां / खंड-खंड मन / इंद्रियों की मालकियत / सोई हुई आत्मा / छोटे-छोटे कारणों से बड़ी दुर्घटनाएं हो जाना / महाभारत युद्ध का कारण-द्रौपदी का दुर्योधन पर हंसना / आदमी इंद्रियों के पाश में बंधा हुआ पशु है / जितेंद्रिय पशुपति–मालिक हो जाता है / रथ में जुते बे-लगाम

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