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[५४ ] . योग उस भावेन्द्रिय का होता है। जिस इन्द्रिय का जो क्षयोपशम होता है वह इन्द्रिय अपने बाह्य निमित्तभूत उसी द्रव्येन्द्रिय द्वारा उपयोगात्मक बन जाती है। वहां जुदे २ पांचों ही बाह्य निमित्त हैं। परन्तु वेदों में तो ऐसा नहीं है, वहां तो इन्द्रिय-विधान से सर्वथा विपरीत ही रूप है। वेदों में भाववेद तो तीन हैं परन्तु एक जीव के द्रव्यवेद एक ही है। इस लिये तीनों भाववेदों का उदय व्यक्तरूप अथवा कार्यरूप होगा तो उसी एक बाह्य निमित्त द्वारा ही होगा। वहां भी यदि द्रव्येन्द्रिय के समान तीनों बाह्य निमित्त-तीन द्रव्यवेद होते तो तीनों भाववेद भी द्रव्येन्द्रियों की भिन्न २ रचना के समान अपने २ भाववेद का उदय अपने २ द्रव्यवेद द्वारा ही व्यक्त करते। परन्तु बाह्यवेद एक शरीर में एक हा है। इस लिये तीनों भाववेदों की व्यक्ति एक ही निमित्त द्वारा होती है।
इसी प्रकार यदि पांचों इन्द्रियों के स्थान में एक शरीर में यदि एक ही द्रव्येन्द्रिय होती तो पांचों भावेन्द्रियां उसी एक द्रव्येन्द्रिय निमित्त द्वारा ही उपयोग रूप हो जाती परन्तु इन्द्रियां तो जुदी २ हैं। और न्याय सिद्धान्त का प्रसिद्ध एवं अकाट्य नियम है कि प्रत्येक कार्य अन्तरंग और बहिरंग कारणों से ही साध्य होता है। भाव की व्यक्ति द्रव्य बिना नहीं हो सकती है। और द्रव्य का उपयोग बिना भाव के नहीं हो सकता है। जहां जैसा निमित्त होता है उसी