Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 145
________________ [ १२६] शृंखला द्वारा जो कर्म क्षय किया जाता है वैसी आत्मा विशुद्ध रह सकती है क्या ? नहीं रह सकती। और वहां फिर शुक्लध्यान नहीं रहकर ब्रह्मचर्यका घातक रौद्रध्यान ही ठहरेगा यदि वे कहें कि वहां केवल संज्वलन कषाय है सो भी अत्यन्त मन्द है, इस लिये वहां पर वेद कर्म का उदय कुछ कर नहीं सकता हैं तो फिर केवली भगवान के राग-द्वेष के अभाव में वेदनीय का उदय क्षुधादि बाधा क्यों पैदा कर सकता है ? अब अधिक लिखना व्यर्थ है, यहां पर हम शास्त्रीय प्रमाण देकर यह बता देना चाहते हैं कि वेदनीय कर्म बिना मोहनीय की सहायता के कुछ भी नहीं कर सकता। यथा जणो कसाय विग्ध चउकाणवलेण साद पदुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसंहवे सोक्खं ॥ (लब्धिसार गाथा ६११) अर्थ-नोकषाय और चार अन्तराय के उदय के बल से साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों के उदय से जो इन्द्रिय सन्तोष होता है उसका नाम इन्द्रिय-जनित सुख है। वह केवली के सम्भव नहीं है। क्योंकि उनके इन्द्रिय-जन्य सुख नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि केवल साता का उदय कुछ नहीं कर सकता, उसे नोकषाय, और चारों अन्तराय कर्मों का उदय सहायक होता है तभी वह सातोदय कार्य कर सकता है।

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