Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 157
________________ [ १४१ ] नहीं है मीमांसा की कारिका का अर्थ हम यहां पाठकों की जानकारी के लिये प्रगट किये देते हैं । वह इस प्रकार है - 1 आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने दूसरे दर्शनों की उस मान्यता का खण्डन इस कारिका में किया है जो यह मानते हैं कि अपने आप को दुःख देने से तो निश्चय से पुण्यबन्ध आत्मा में होता है । और अपने आपको सुखी बनाने से आत्मा में पापबन्ध होता है । इस विचित्र दर्शन एवं मान्यता के खण्डन में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि ऐसा मानना ठीक नहीं है । कारण यदि अपने आपको दुःख पहुंचाने से पुण्यबन्ध होता तो जो मुनिराज परम वीतरागी होते हैं वे भी काय क्लेशादि अनेक प्रकार के घोर तपश्चरण द्वारा दुःख साधनों को उत्पन्न करते हैं, सीघ्र गर्मी के सन्तप्त पहाड़ पर तप करते हैं, तीव्र शीत में नदी के किनारे पर ध्यान लगाते हैं, यदि इस तपश्चरण रूप दुःखोत्पादन से पुण्यबन्ध ही होता हो तो कोई भी वीतरागी मुनि पुण्यबन्ध हो करता रहेगा, वैसी अवस्था में वह पुण्य-पाप रूप समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष को कभी नहीं जा सकेगा । परन्तु ऐसा नहीं है वीतरागी मुनि परीषहों को सहन करते हैं, उपसर्ग भी सहन करते हैं, समस्त कष्टों को सहन करते हैं, फिर भी वे पुण्य बन्ध नहीं करते हैं, किन्तु कर्मों की निर्जरा करते हैं। इस लिये अपने को दुःख पहुंचाने से पुण्यबन्ध होता है, यह मानना विरुद्ध है। इसी प्रकार यदि अपने को सुख पहुंचाने से पापबन्ध

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