Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 148
________________ [ १३२] णोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । उज्झ मणोवि य कमसो आहारो छविहो लोओ। (सं० २० वि०) अर्थ ऊपर किया जा चुका है। इन छह प्रकार के आहारों में किसके कौन होता है णोकम्मं तित्थयरे कम्मं णारेय माणसो अमरे। कवलाहारो गरबसु उज्मो पक्खीये इगिलेऊ। (सं० व० वि०) अर्थात्-तीर्थकरों के तो नोकर्म वर्गणाओं का आहार होता है, कर्म वर्गणाओं का आहार नारकियों के होता है। मानसिक आहार समस्त देवों के होता है। कवलाहार मनुष्य और पशुओं के होता रहता है। रोजाहार ( उष्णता रूप पाहार ) पक्षियों के होता है और लेपाहार एकेन्द्रियों के होता है, पक्षियों के अण्डों में जीव रहता है, परन्तु उसकी रक्षा और वृद्धि भोज आहार से अर्थात् माताके पंखों की गर्मी से होती है। वृद्धि भी होती है। इसी प्रकार केवली के नोकर्म परमाणुओं का ही आहार है । साथ ही उनका परमौदारिक शरीर है, अतः वहां कवलाहार की आवश्यकता भी नहीं है। जैसे देवों के केवल मानसिक आहार माना गया है, उसीसे उनके शरीर की स्थिति आयुकर्म की प्रधानता से बनी रहती है, उसी प्रकार भगवान के नोकर्म का आहार समझना चाहिये, यदि वेदनीय के उदय से भोजन की

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