Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 151
________________ [ १३५] अहेन्त परमेष्ठी देव कहलाता है। इतना स्पष्ट सहेतुक और सप्रमाण निषेध दिगम्बर जैनाचार्यों का मिलने पर भी प्रो० सा० अर्हन्त भगवान के किस प्रकार क्षुधादि की बाधा बताते हैं। सो आश्चर्य की बान है। उन्होंने यह जो लिखा है कि यदि वैसा होता तो फिर मोहनीय कर्म के अभाव के पश्चात् वेदनीय का उदय माना ही क्यों जाता ? यह तर्क उनकी वस्तुस्थिति, हेतुवाद और प्रमाणवाद से सर्वथा शून्य है। इस विषय में पहली बात तो यह है कि जो कुछ भी जैसा वस्तु का स्वरूप है वह उसी रूप में रहता है, ऐसा क्यों है यह तर्क व्यर्थ है । 'स्वभावोऽतर्क, गोचरः वस्तु स्वभाव तर्क से खण्डित नहीं होता है। नहीं तो कोई यह भी कह सकता है कि अग्नि उष्ण क्यों है ? तो यही कहा जायगा कि वैसा उसका स्वभाव है । इसी प्रकार जब अघाती कर्म सयोगी अयोगी गुणस्थानों में रहते हैं और घाती कर्म उससे पहले ही नष्ट हो जाते हैं यह वस्तु स्थिति सर्वज्ञ प्रत्यक्ष है तब मोहनीय के अभाव में वेदनीय का उदय क्यों माना ? यह सके व्यर्थ है। यदि तर्क बल ही ठीक माना जाय तो यह भी तक हो सकता है कि जब चौदहवें गुणस्थान में कम नोकर्म रूप कोई वर्गणा का आश्रय ही नहीं होता है तब नाम कर्म और गोत्र

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