Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 154
________________ [ १३८ ] जितनी भी मोहनीय कर्म की सहायता से पड़ी थी उसी का सद्भाव मोहनीय के अभाव में रहता है। यदि आयुकर्म स्वतन्त्र अथवा बिना मोहनीय की सहायता के अपना कार्य करता होता तो मोहनीय के प्रभाव होने पर आयुकर्म में थोड़ी सी भी स्थिति बढ़ जाती तब तो समझा जाता कि वह मोहनीयकी सहायता की अपेक्षा नहीं रखता है। यथा "ठिदि अणुभागा कसायदो होन्ति" अर्थात-स्थिति और अनुभाग प्रत्येक कर्म में कषाय से ही पड़ते हैं। इस लिये घातियों के अभाव में अघातिया कर्म असमर्थ हो जाते हैं, फिर भी अपनी स्थिति को पूरा करने के लिये वे ठहरे रहते हैं। यदि आयुकर्म की स्थिति थोड़ी हो तो समुद्घात होने पर शेष कर्मोंकी स्थिति भी घट जाती है। इस कार्यकारण की परिस्थिति से कर्मसिद्धान्त की व्यवस्था के अनुसार मोहनीय कर्म के अभाव में भी वेदनीय का उदय मानना हेतुवादपूर्ण है। भगवान अहंन्त के क्षुधादि बाधाएं सर्वथा नहीं हो सकती हैं, इस विषय में चार ज्ञान के धारी गौतम गणधर लिखते हैं"दुःसहपरीषहाख्यद्र ततररंगत्तरंगभंगुरनिकरम्" (क्रियाकलाप पृ० २८६) अर्थात्-अहत भगवान के क्षुधा पिपासादि परीषहें सर्वथा नष्ट हो चुकी हैं।

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