Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 149
________________ [ १३३ ] श्राकांक्षा भगवान के मानी जायगी तो फिर वेदोदय से ध्यानारूढ़ मुनिके स्त्री आदि की आकांक्षा माननी पड़ेगी। ५-यदि वेदनीय कर्म के उदय से भगवान के क्षुधाबाधा मानी जायगी तो फिर उसी कर्म के उदय से उनके रोग बध आदि भी मानने पड़ेंगे। फिर तो भगवान के पेचिश आदि रोग का सद्भाव भी मानना पड़ेगा। क्योंकि वह भी वेदनीयोदय में होता है। रोग मानने पर फिर तो वैद्य तथा औषधि आदि सब साधनों की आवश्यकता होगी अत पव फिर तो भगवान में और संसारी मनुष्यों में कोई भेद न रहेगा। दूसरे भगवान का शरीर सप्त धातु-वर्जित तेजोमय होता है। इस लिये वहां पर कवलातार की आवश्यकता ही नहीं है। यथा शुद्धस्पटिकसंकाशं तेजो मूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम । (सं० २० वि० पृ० ३२) अर्थात्-भगवान का शरीर शुद्ध स्फटिक के समान तेजरूप सप्तधातु रहित होता है। क्योंकि उनके शरीर में कोई दोष नहीं रहता है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'एकादशजिने' इस सूत्र का अर्थ करते हुए भगवान के परीपहों का निषेध इस प्रकार किया है। यथा ___ यच्चोपचारतोपि अस्यैकादश परीषहा न संभाव्यते तत्र- तनिषेधपरत्त्वात सुत्रस्य-एकेन अधिका न दश परिषहा जिने !!

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