Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 147
________________ [ १३१ ] ठुपमा पदमा सरणा रहि तत्थ कारणाभावा । ( गो० जी० गाथा १३८ ) अर्थात - प्रमत्त गुणस्थान से ऊपर पहली संज्ञा ( आहार संज्ञा ) नहीं है, क्योंकि वहां उसका कारण नहीं है । भगवान अर्हन्त के क्षुधादि बाधा और कवलाहार मानने में हेतुवाद भी पूर्ण बाधक है । यथा १ -- भोजन करने से उनके वीतरागता भी नहीं रह सकती । कारण भोजन की अभिलाषा होगी और जहां अभिलाषा है वहां वीतरागता नहीं रह सकती । - २ - केवली भगवान सर्वज्ञ हैं, अतः जहां २ जो क मछली को मार रहा है उसे तथा जो कोई मांसादि लिये बैठा है वह सब भी उन्हें प्रत्यक्ष दीखता है वैसी अवस्था में उनके भिक्षा-शुद्धि कैसे रह सकती है। और अन्वराय कैसे टाला जा सकेगा । ३ - भोजन करने से भगवान के रसनेन्द्रिय का सद्भाव भी मानना पड़ेगा । फिर तो इन्द्रिय विषय- श्रभिलाषी वे ठहरेंगे । ४ -- यदि कहा जाय कि बिना भोजन किये भगवान का शरीर कैसे ठहरेगा तो यह भी बात नहीं बनती है क्योंकि आहार केवल कवलाहार ही नहीं है, कर्म आहार, नोकर्म आहार, कवलाहार, लेप्याहार, श्रज-आहार, मनसाहार ऐसे आहार के छह भेद हैं। यथा

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