Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 146
________________ १३० j बिना मोहनीय की सहायता के वेदनीय कर्म कुछ नहीं कर सकता इसके लिये प्रमाण घादिव्य वेयणीयं मोहस्स वलेण घाददे जीवं। इदि घादीणं मझे मोहस्सादिम्मि पठिदं तु॥ (गोम्मटसार कर्म० १६ गाथा) वेदनीय कर्म, मोहनीय कम के बल से ही घातियों के समान जीवों का घात करता है। अर्थात् वस्तु में रागद्वेष रूप भावों से इष्टानिष्ट बुद्धि होने से ही सुख-दुःख का अनुभव होता है। इस लिये मोहनीय की सहायता के बिना वेदनीय कर्म उदय मात्र रहता है। जैसे क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले शुक्लध्यानी मुनियों के पुंवेद, स्त्रीवेद का उदय नाममात्र है। कार्यकारी नहीं है वैसे वेदनीय भी नाममात्र है। वह क्षुधादि बाधा नहीं कर सकता है। यदि प्रो० सा० के मन्तव्यानुसार सयोग केवली भगवान के आहार संज्ञा है तो वह चौदहवें गुणस्थान में भी रहेगी, क्योंकि वेदनीय का उदय तो वहां भी है। फिर तो भोजन करते २ ही मोक्ष हो जायगी। चौदहवें गुणस्थानमें क्षुधादि बाधा वे मानते हैं या नहीं, सो भी प्रगट करें। फिर क्षुधादि बाधा का नाम ही आहार संज्ञा है। आहार संज्ञा छठे गुणस्थान में ही नष्ट हो जाती है फिर उससे उपर क्षुधादि बाधा किस प्रकार हो सकती है? नहीं हो सकती। यथा

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