Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 144
________________ [ १२८ ] चाहते हैं, जितना प्रकृत विषय है उसी पर विचार करते हैं । जब क्षुधादि बाधा इच्छापूर्वक होती है तब इच्छा का सद्भाव भी भगवान के मानना पड़ेगा और "इच्छा च लोभपर्याय:" इच्छा लोभ की पर्याय है अतः भगवान लोभ कषाय भी मानना पड़ेगा । इस लिये शाखाधार से यह सिद्ध है कि भगवान के जो वेदनीय कर्म का उदय है वह मोहनीय की सहायता के बिना कुछ नहीं कर सकता । फिर भी कर्मोदय की अपेक्षा केवल उपचार से भगवान के ग्यारह परोषह कही गई हैं । यह कथन उसी प्रकार का उपचार कथन है कि जिस प्रकार आठवें नौवें गुणस्थानों में पु'वेद, स्त्री वेद और नपुंसक वेदों का उदय होने से भावपुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसक माने जाते हैं । यदि वेदों का उदय होने मात्र से उन ८ ६ वें गुणस्थानों में भी उनका कार्य माना जाय तो वहां भी उन श्रप्रमत्त, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले वीतरागी शुक्ल ध्यारारूद मुनिराजों के भी काम वासना का सद्भाव मानना पड़ेगा ? क्योंकि वेदों का उदय वहां पर है ही । तो क्या प्रोफेसर साहब शुक्लध्यानी क्षपक श्रेणी वालों के भी काम-वासना स्वीकार करते हैं ? बतावें । नहीं करते तो क्यों नहीं करते ? जब कि कर्मोदय है । यदि वे भगवान के क्षुधादि बाधा के समान वहां भी काम वासना मानते हैं तो फिर क्षपक श्रेणी चढ़ने एवं बादर- कृष्टि, सूक्ष्म कृष्टि भावों की

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