Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 136
________________ [ १२० ] तस्य मोहोदयावयक्तरसवद्योदयेपि च ॥ क्षामोदरत्व-संपत्तौ मोहापाये न सेक्ष्यते । सत्याहाराभिलाषेपि नासधोदयाहते। न भोजनोपयोगस्यासत्वेनाप्यनुदीरणा । असाता वेदनीयस्य न चाहारे क्षणाद्विना ।। क्षुदित्यशेषसामग्री-जन्याभिव्यंजते कथं । तवैकल्पे सयोगस्य पिपासादेरयोगतः।। क्षुदादि वेदनोद्भूतौ नाहतोऽनंतशर्मता । निराहारस्य चाशक्तौ स्थातु नानंतशक्तिता ।। नित्योपयुक्तवोधस्य न च संज्ञास्ति भोजने । पाने चेति क्षुदादीनां नाभिव्यक्तिर्जिनाधिपे । (श्लोकवार्तिक पृ० ४६२) इन कारिकों में हेतुवाद पूर्वक केवली भगवान के क्षुधादि वेदना का अभाव बताया गया है। आचार्य विद्यानंदि कहते हैं कि जिस प्रकार भगवान अहेन्त के कषायों का प्रभाव हो चुका है योगमात्र रहता है इस लिये वहां लेश्या उपचार से मानी जाती है, उसी प्रकार घातिया कर्मों का नाश होने पर भी वेदनीय कर्म का सद्भाव रहने से उन अहेन्त के परीषह भी उपचार से मानी जाती हैं। जिस प्रकार प्रयोग केवली भगवान के क्षुधादि बाधा नहीं होती है उसी प्रकार अर्हन्त भगवान के भी नहीं होती है। क्षुधा पिपासा की बाधा नीचे लिखे कारणों से हो सकती है

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