Book Title: Digambar Jain Siddhant Darpan
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 139
________________ [ १२३ ] "मोहनीय के अभाव में रागद्वेष परिणति का अभाव अवश्य होगा पर वेदनीय - जन्य वेदना का अभाव नहीं हो सकेगा। यदि वैसा होता तो फिर मोहनीय कर्म के अभाव के पश्चात् वेदनीय का उदय माना ही क्यों जाता ? वेदनीय का हृदय सयोगी और अयोगी गुणस्थान में भी आयु के अन्तिम समय तक बराबर बना रहता है । इसके मानते हुए तत्संबंधी वेदनाओं का अभाव मानना शास्त्र सम्मत नहीं ठहरता " प्रो० सा० का कहना ऊपर की पंक्तियों से पाठक समझ लेवें । प्रो० सा० की मूल बात इतनी ही है कि वे मोहनीय के अभाव में रागद्वेष का प्रभाव भगवान के बताते हैं परन्तु वेदनीय कर्म का उदय रहने से उनके क्षुधादि की वेदना बाधा का सद्भाव बताते हैं । कर्म परन्तु प्रो० सा० को यह समझ लेना चाहिये कि वेदनीय प्रकृति है वह स्वयं आत्मीय गुणों का घात करने में सर्वथा असमर्थ है, उसकी सहायक मोहनीय प्रकृति का जब तक उदय नहीं होता तब तक केवल वेदनीय प्रकृति कुछ नहीं कर सकती। अनुभव भी यही बताता है कि सुख दुःख का अनुभव करना साता असातावेदनीय का कार्य है परन्तु सुख दुःख का अनुभव भी आत्मा में तभी हो सकता है जब कि किसी वस्तु में इष्ट अनिष्ट बुद्धि हो, जिसमें इष्ट बुद्धि या अनुराग होगा उसकी प्राप्ति से सुख का अनुभव होगा, जिस वस्तु में अनिष्ट बुद्धि होगी उसकी प्राप्ति में दुःख का अनुभव

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